क़ुरआन हमारी नजात | The Qur’an is our Salvation

क़ुरआन हमारी नजात | The Qur’an is our Salvation

आख़रित की कामयाबी के लिए हम लापरवाह मुसलमानों को शदीद बेदारी की ज़रूरत है जिसके लिए बहुत से इक़दाम हैं। बेदारी के चंद क़दम में आज का हमारा मौज़ू कुरआन करीम है और इसी में हमारी नजात है। कुरआन करीम साढ़े चौदह सौ साल पहले अल्लाह तआला ने जिब्रील अमीन अलै0 के ज़रिए नबी करीम स0अ0व0 पर हमारे लिए नाज़िल फ़रमाया और बता दिया कि यह आख़री किताब कुरआन करीम रहती दुनिया के लिए ज़रिया-ए-हिदायत है, न सिर्फ़ उनके लिए जो उस वक़्त मौजूद थे बल्कि इस दुनिया के आखि़री पैदा होने वाले इंसान को भी नजात इसी किताब-ए-हिदायत से मिलेगी। इसमें जामेह हिदायतें हैं। इस कुरआन की अहमियत को मद्देनज़र रखते हुए हम कुरआन करीम की ज़रूरत को चंद ज़ाविये से समझने की कोशिश करेंगे और बेदारी के चंद क़दम लेंगे। कुरआन के क़रीब आना क्यों ज़रूरी है? कुरआन को सुनना क्यों ज़रूरी है? कुरआन का इल्म हासिल करना क्यों ज़रूरी है? कुरआन को समझकर पढ़ना क्यों ज़रूरी है? मुसलमान होने की वजह से इंशाअल्लाह तआला! कोई एक तरग़ीब ज़रूर हमें इस किताब से क़रीब करेगी या जोड़ेगी।

जो क़ुव्वत वाला है, जिसका अर्श वाले के पास बड़ा रुतबा है। कि यह (कुरआन) यक़ीनी तौर पर एक मुअज़्ज़ज़ फ़रिश्ते का लाया हुआ कलाम है।

इससे मुराद हज़रत जिब्रील अलै0 हैं जो आंहज़रत 0अ0व0 के पास वही के ज़रिए कुरआन करीम लाया करते थे। (आसान तर्जुमा कुरआन) सबसे बड़ा पहलू यह है कि हमें इस किताब की ज़रूरत सबसे ज़्यादा इस लिए है कि यह हक़ है और अल्लाह तआला का हतमी कलाम है, आसमानों से आई हुई नसीहतें और अहकामात हैं। वो अहकामात हैं जो इंसानों को इस ज़मीन में फ़साद बरपा करने से बचाते हैं और हुक्म पर चलने के लिए आसानी पैदा करते हैं। कुरआन करीम में अल्लाह तआला ने बहुत सी मिसालें दी हैं ताकि उसके बंदे मुश्किलों में न फँसें। बताया गया कि मर्दों को किस तरीक़े पर काम करना है और ज़िंदगी में किस तरह आगे बढ़ना है ताकि अल्लाह तबारक व तआला के किसी क़ानून की खि़लाफ़वरज़ी न हो और इसी तरह औरतों को किस तरह अपनी ज़िंदगी गुज़ारनी है, ज़िंदगी के कौन से पहलू में किस तरह का किरदार निभाना है? यह सब हमें कुरआन करीम में मिलता है। बेलेंस, फ्रेम वर्क यानी एक कानूनी ढांचा या ख़ाका कब किस को किस तरह, किन हालात में अमल करना है? अल्लाह तआला का इरशाद हैः

यह किताब ऐसी है कि इसमें कोई शक नहीं, यह हिदायत है उन डर रखने वालों के लिए।

यानी इस किताब की हर बात किसी शक-ओ-शुबहा के बिना दुरुस्त है, इंसान की लिखी हुई किसी किताब को सौ फ़ीसदी शक से बाला-तर नहीं समझा जा सकता, क्योंकि इंसान कितना ही बड़ा आलिम हो उसका इल्म महदूद होता है और अकसर उसकी किताब उसके ज़ाती गुमान पर मबनी होती है; लेकिन चूँकि यह किताब अल्लाह तआला की है जिसका इल्म लामहदूद भी है और सौ फ़ीसदी यक़ीनी भी, इस लिए इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं। किसी को शक हो तो यह उसकी नासमझी की वजह से होगा किताब की कोई बात शुबह वाली नहीं। यह इंसान की हमेशा की ज़िंदगी की बहुतरी और तबाही दोनों मुआमलात को बताती है। लिहाज़ा यह डर दिल में होना चाहिए कि कहीं मेरी नफ़सानी ख़्वाहिशात कुरआन करीम के दलाइल ठीक-ठीक समझने में रुकावट न बन जाएँ इस लिए मुझे इसकी दी हुई हिदायत को तलाश-ए-हक़ के जज़्बे से पढ़ना चाहिए, और पहले से दिल में जमे हुए ख़यालात को ख़ाली करके पढ़ना चाहिए ताकि मुझे वाक़ई हिदायत नसीब हो। यह हिदायत है डरने वालों के लिए“’’ का एक मतलब यह भी है। (आसान तर्जुमा कुरआन) कुरआन अल्लाह का कलाम है जो हमें उस इल्म तक पहुँचाता है जहाँ हम अपने हवास-ए-ख़म्सा के बावजूद नहीं पहुँच पाते हैं, वहाँ कुरआन हमारी रहनुमाई करता है। यानी जहाँ हमारी अक़्ल, समझ-बूझ, बसरत-ओ-बसीरत और समाअत और एहसासात नहीं पहुँच पाते हैं, वहाँ के लिए हमें एक ऐसे इल्म की ज़रूरत है जो इन सबसे बढ़कर हमें बाख़बर कर सके। हमारी अक़्ल जिस्मानी सलाहियतों से ज़्यादा हो सकती है; लेकिन अल्लाह तआला ने हर चीज़ की एक हद बना रखी है कि हम उसके आगे नहीं पहुँच पाते हैं। इसकी मिसाल इस तरह है कि हम अपनी आँखों के किनारों को कितना ही चारों तरफ़ घुमा लें मगर अपने ही जिस्म का हर हिस्सा देखने से क़ासिर हैं। अपने कानों से अपने बदन के मेकानिज़्म को नहीं सुन सकते हैं, ख़ून की गर्दिश अपने जिस्म में ख़ुद महसूस नहीं कर सकते हैं। यानी हमें दुनिया में लिमिटेड सोच-ओ-अक़्ल और लिमिटेड

हवास-ए-ख़म्सा के साथ भेजे गये हैं। यानी हमें हुदूद के अंदर रखा गया है। जिसकी तमाम मसालेहों से सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह तआला बाख़बर है। हम तो अपने बारे में आने वाले एक घंटे के बाद क्या होने वाला है, इससे भी बेख़बर हैं तो ऐसे में किस चीज़ की ज़रूरत है? जवाब साफ़ हैकृ ’’अल्लाह के कलाम-ओ-अहकाम की!’’ जिससे हम अपनी ज़िंदगी के हर आने वाले लम्हे की रहबरी ले सकें। जिससे आने वाले हादसात और मुसीबतों से बच सकें कि अगर ऐसे हालात पेश आएँ तो आप उस वक़्त किस तरह उन हालात में, ज़िंदगी के मराहिल में सकून के साथ अल्लाह का बताया हुआ लायिहा-ए-अमल तैयार करके अपनी हिफ़ाज़त कर सकें। यह इल्म अल्लाह तआला से बढ़कर कौन दे सकता है? इस्लाम से पहले मुख़्तलिफ़ अंबिया और रसूल अल्लाह तआला के अहकाम लाते रहे और इंसानी नस्लों को गाइड करते रहे। नबी करीम स0अ0व0 के आने के बाद से यह सिलसिला अल्लाह तआला ने रोक दिया और क़यामत तक पेश आने वाले सारे वाक़ियात, मुसीबतों और मराहिल में रहबरी के लिए अल्लाह तबारक व तआला ने अपना क़ुरआन नाज़िल फ़रमा दिया। तो यह सबसे बड़ी वजह हुई क़ुरआन को अपना दोस्त बनाने की। कि यह हमें ज़हानत की उफ़ुक़ दिखाता है, हमारी महदूद सोच के साथ हमें कामयाबी से हमकिनार करता है। इरशाद-ए-बारी हैः अल्लाह ने बेहतरीन कलाम नाज़िल फ़रमाया है, एक ऐसी किताब जिस के मज़ामीन एक दूसरे से मिलते जुलते हैं, जिस की बातें बार बार दोहराई गई हैं। वह लोग जिन के दिलों में अपने परवरदिगार का रौब है, उन की खालें उस से कांप उठती हैं, फिर उन के जिस्म और उन के दिल नरम हो कर अल्लाह की याद की तरफ़ मुतवज्जह हो जाते हैं। यह अल्लाह की हिदायत है जिस के ज़रिए वह जिस को चाहता है राहे रास्त पर ले आता है, और जिसे अल्लाह रास्ते से भटका दे, उसे कोई रास्ते पर लाने वाला नहीं।

दूसरी वजह यह है कि क़ुरआन सिर्फ़ ख़ालिक़ और मख़्लूक़ के बारे में नहीं बताता है जहाँ पिछली नस्लों और अंबिया के वाक़िआत का पता चलता है और ना ही सिर्फ़ जहन्नम और जन्नत के बारे में बताता है बल्कि क़ुरआन करीम हमें सोचने के लिए नज़रिया देता है, ज़िंदगी में कामयाबी से आगे बढ़ने के तरीके (च्ंजजमतद) सिखाता है, रहबरी करता है। अब चाहे वह इंसान ज़िंदगी के किसी शोबे से मुनसलिक हो, डॉक्टर हो, इंटेलिजेंस में हो, रिसर्च में हो, मेडिसिन में हो, इंजीनियरिंग में हो, नासा में हो या वह बिज़नेस (तिजारत), स्कूल टीचर या तालिब-ए-इल्म हो। वह कहीं भी हो, उसे अपने लिए कैसे और किस तरह और कब अपनी ज़िंदगी में क्या चुनना चाहिए? कौन से इक़दाम बेहतर हैं? और क्या नामुनासिब है? क़ुरआन हक़ीक़तन इसको यह इल्म और तसव्वुर देता है। हम ना तो क़ुरआन को सुनते हैं, ना समझते हैं ना ही इसकी आयात की गहराई में जाते हैं। जब कि क़ुरआन हमारा अपने रब के साथ एक ऐसा ताल्लुक़ बना देता है कि हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अपना वजूद अल्लाह तआला की मर्ज़ी के मुताबिक़ ढाल सकते हैं। और यह हमारी दूसरी वजह हुई क़ुरआन के सामने बैठने की कि यह हमारी ज़िंदगी को एक क़ीमती नज़रिया, ढांचा और ख़ाका देता है जिससे हम अपनी ज़िंदगी के मक़ासिद को चुन सकते हैं। तीसरी वजह क़ुरआन इंसानियत को आसानी की राहें सिखाता है। जिस दिन मुसलमानों को यह यक़ीन हो गया कि क़ुरआन पर अमल करने में मेरा फ़ायदा है, आसानी है तो क़ुरआन को अहमियत भी देंगे और इसके अहकाम पर हर गुज़रते दिन के साथ अमल भी ज़्यादा तेज़ी से करते जाएंगे। अल्लाह तबारक व तआला ने सूरह ताहा में फ़रमायाः

हम ने तुम पर क़ुरआन इस लिए नाज़िल नहीं किया कि तुम तकलीफ़ उठाओ।

इस तकलीफ़ से मुराद वह तकलीफ़ें भी हो सकती हैं जो आंहज़रत स0अ0व0 को कुफ़्फ़ार की तरफ़ से पहुंच रही थीं, इस सूरत में मतलब यह है कि यह तकलीफ़ें हमेशा बाक़ी रहने वाली नहीं हैं। अल्लाह तआला इन को दूर फ़रमा कर आप को फ़तह अता फ़रमाएगा। और बाज़ रिवायतों से मालूम होता है कि आंहज़रत स0अ0व0 शुरू में सारी सारी रात जाग कर अल्लाह तआला की इबादत फ़रमाते थे, यहाँ तक कि आप स0अ0व0 के पैर मुबारक सूज जाते थे। इस आयत में अल्लाह तआला ने इरशाद फ़रमाया कि आप को इतनी तकलीफ़ उठाने की ज़रूरत नहीं है। चुनांचे इस आयत के नुज़ूल के बाद आप स0अ0व0 ने रात के शुरू हिस्से में सोना और आख़रिी हिस्से में इबादत करना शुरू कर दिया। (आसान तर्जुमा क़ुरआन) उलमा किराम फ़रमाते हैं कि इन आयात से हमें सबक़ मिलता है कि क़ुरआन करीम को बोझ समझने के बजाए इसे रहमत और राहत समझा जाए। दीन में आसानी है अल्लाह तआला ने किसी पर भी नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बोझ नहीं डाला। हमें चाहिए कि हम दीन पर अमल को मशक्कत न समझें; बल्कि इसे अपनी ज़िंदगी में सुकून और हिदायत का ज़रिया बनाएं ताकि हम ख़ुश और पुरसुकून रह सकें। आज जो हमारी ज़िंदगी में झुंझलाहट, बे-सुकूनी और ग़ुस्सा है, वह क़ुरआनी आयात को समझने और उस पर अमल न करने की बहुत बड़ी वजह है। क़ुरआन के साथ जुड़ जाने वाले मज़बूती पाते हैं, मुस्कराते हैं, थोड़ा ज़्यादा मुस्कराते हैं। जो जितना तक़वा और अमल वाला होगा वह उतना ही ज़्यादा ख़ुश-ओ-ख़रम, पुरसुकून और मुस्कराता होगा। दींदार होने का मतलब यह नहीं कि ऐसे संजीदा और ग़ज़बनाक हो जाओ कि सब लोग उस मुसलमान से बात करने से डरें, मुस्कराना ईमान के ख़लिाफ़ नहीं है। क़ुरआन इस लिए दिया गया है कि इसका मक़सद और जौहर समझ कर अपनी ज़िंदगी में सुकून, अख़लाक़ और ख़ुशियाँ लाएं। हज़रत अब्दुल्लाह रज़ि0 से मरवी हैः

हज़रत अब्दुल्लाह बिन हारिस बिन ज़ु़अ़ब रज़ि0 कहते हैं कि रसूल अल्लाह स0व0अ0 से बढ़ कर मुस्कराने वाला मैंने किसी को नहीं देखा।
हज़रत जरीर रज़ि0 से मरवी हैः
हज़रत जरीर रज़ि0 ने बयान किया कि जब से मैंने इस्लाम क़बूल किया नबी करीम स0 ने (अपने पास आने से) कभी नहीं रोका और जब भी आप स0 ने मुझे देखा तो मुस्कराए।

नबी करीम स0व0अ0 की मुस्कराहट से हमें सीखने को मिलता है कि ख़ुश अख़लाक़ी दूसरों के दिल जीतने व मोहब्बत व अपनाइयत का बेहतरीन ज़रिया है जो सादगी के बावजूद दूसरों के दिलों पर गहरा असर छोड़ता है। इसी लिए आप स0व0अ0 ने इरशाद फ़रमायाः

अपने भाई के सामने तुम्हारा मुस्कराना तुम्हारे लिए सदक़ा है।“
इसी लिए क़ुरआन से जुड़ना है। यह हुई तीसरी वजह।
चौथी वजह यह कि हम क़ुरआन के सामने क्यों आएं? क़ुरआन का मफ़हूम क्यों समझें? और अपनी ज़िंदगियों में क़ुरआन को क्यों खोलें? मुसलमान होते हुए हमारा ईमान है कि हम को इस दुनिया के बाद आख़रित की ज़िंदगी में जाना है और क़ुरआन आख़रित की तैयारी कराता है। हम इस बात से बिल्कुल वाक़िफ़ हैं कि इंसानी वजूद ना तो माँ के रहम से शुरू होता है और ना मौत के साथ ख़त्म होता है और आख़रिी सांस का रुकना, दिमाग़ का काम करना बंद करना, दिल की धड़कन बंद होने का मतलब इंसानी ज़िंदगी का ख़ात्मा नहीं है। हमारा वजूद के ज़माने से है। क़ब्रों में जिसके ख़त्म होने से हम ख़त्म नहीं होते हैं। यह सब कौन बताता है? क़ुरआन ही बताता है। दुनिया की हक़ीक़त से कौन वाक़िफ़ कराता है? कलामुल्लाह कराता है। क़ुरआन आखि़रत की ज़िंदगी सिखाता है। क़ुरआन के ज़रिए ही हमने जाना कि दुनिया में आने से पहले अल्लाह तआला ने हमें रूहों के अज़ीम जम ग़फ़ीर के साथ रखा हुआ था। और मौत के बाद आलम-ए-बरज़ख़ की ज़िंदगी गुज़ारना है। क़ब्र में भी जब रिश्तेदार दफ़्न करके जाते हैं तो नबी करीम स0व0अ0 ने फ़रमाया कि वह जूतों की आवाज़ सुनता है। इरशादे नबवी हैः

हज़रत अनस रज़ि0 से रिवायत है कि नबी अकरम स0व0अ0 ने फ़रमायाः बंदा जब अपनी क़ब्र में रखा जाता है, और उसके साथी लौटते हैं, तो वह उनकी जूतियों की आवाज़ सुनता है।

यह हदीस हमें क़ब्र के शुरुआती मराहिल की हक़ीक़त और बरज़ख़ी ज़िंदगी की झलक दिखाती है। याद रखिए! मय्यत की समाअत का यह मामला सिर्फ़ एक मख़सूस वक़्त के लिए है न कि हमेशा के लिए। यह चीज़ें हमें याद दिलाती हैं कि मौत के बाद भी इंसान एक हक़ीक़त से गुज़रता है जिसका ताल्लुक़ रूहानी दुनिया से है। अलग़र्ज़ अल्लाह तआला मुर्दे को उतना ही सुनवाते हैं जितना वह चाहते हैं। इस क़ब्र में उससे सवाल जवाब होते हैं। यह वुजूद के मुख़्तलिफ़ दौर बताने के लिए रूह की इब्तिदा से आख़रित तक क़ुरआन का इल्म दिया गया ताकि मुसलमान आख़रित की तैयारी कर ले। नबी करीम स0अ0व0 ने फ़रमायाः

हज़रत अबू हुरैरा रज़ि0 से रिवायत है, कहाः नबी स0अ0व0 मक्का के एक रास्ते पर चले जा रहे थे कि आपका एक पहाड़ के क़रीब से गुज़र हुआ जिसको जुमदान कहा जाता है, आपने फ़रमायाः चलते रहो, यह जुमदान है। मुफ़रिदून (लोगों से अलग होकर तन्हा हो जाने वाले) बाज़ी ले गए। लोगों ने पूछाः अल्लाह के रसूल! मुफ़रिदून से क्या मुराद है? फ़रमायाः कसरत से अल्लाह को याद करने वाले (मर्द) और अल्लाह को याद करने वाली (औरतें)।

इसकी वज़ाहत इस तरह आती है कि “अलमुफ़रिदून“ का मतलब है कि वह लोग जो दुनियावी मशाग़िल से हटकर अल्लाह के ज़िक्र में मशग़ूल रहते हैं। यह हदीस हमें याद दिलाती है कि अल्लाह के ज़िक्र में लगे रहना इंसान को रूहानी तौर पर बुलंदी पर ले जाता है और आख़रित में कामयाबी का सबब बनता है और यह कब मुमकिन है? जबकि मुसलमान इन चार ब्वदबमचज लायह-ए-अमल पर अमल करता हुआ क़ुरआन करीम से जुड़ा रहता है। क़ुरआन करीम की रोशनी में ही “अज़-ज़ाकिरून वज़-ज़ाकिरात“ बनता है; क्योंकि उसे मालूम होता है कि मुझे क़ुरआन करीम के साथ साबित क़दम रहना है, जुड़े रहना है, यही अटल हक़ीक़त है। इसी में शिफ़ा हैः “और दिलों की बीमारियों के लिए शिफ़ा है।“ इसी से हमारी दाइमी खुशियां और अबदी सुकून जुड़ा है। तो यह हुई क़ुरआन से जुड़ने की चौथी वजह। इसको जो जान गया, समझ गया, उसने क़ुरआन को अपनी ज़िंदगी में अहम व मख़सूस बना लिया। उसने अपनी आख़रित को कामयाब बना लिया; क्योंकि आख़रित के बारे में क़ुरआन ही हमें बताता है और इसको जानने वाला अपनी ज़िंदगी को अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए पुरइख़्तियार बना लेता है यानी गुनाहों में खुद को भटकने नहीं देता है। हमें अपनी ज़िंदगी अच्छे मुसलमान की तरह गुज़ारनी है। चाहें हालात हमारी ख़्वाहिशात के मुताबिक़ हों या ना हों, यही फ़र्क़ एक अच्छे, नेक, शाकिर, साबिर मुसलमान में होता है। चाहें हालात साज़गार हों या ना हों। वह अल्लाह तआला की रस्सी “हबलुल्लाह“ के साथ सुकून से आगे बढ़ता जाता है। यह कौन करता है? जो क़ुरआन को इन चार ज़ावियों से पकड़कर पुरअमल हो जाता है।

अल्लाह तआला से दुआ है कि हमें अपनी ज़िंदगियों में क़ुरआन को पढ़ने और समझने वाला बनाए। और किसी उस्ताज़ से सीखने की तौफ़ीक़ दे और इसके लिए वक़्त निकालने वाला बनाए ताकि की हक़ीक़त को पहुंच सकें। आमीन! अल्लाह तआला हमें तमाम ख़ैर समेटने वाला बनाए और अल्लाह तआला हमें इस हाल में ख़ातिमा बिल-ईमान, बिल-अफ़्व, बिल-रिज़ा दे कि वह हमसे राज़ी हो और हम हर हाल में उसकी रज़ा में राज़ी हों और हमें अपने वालिदैन के लिए और हमारी औलाद और नस्ल दर नस्ल को हमारे लिए बेहतरीन सदक़ा जारीया बनाए और हमें रसूलुल्लाह स0अ0व0 की शफ़ाअत अता फ़रमाए और हमें जन्नतुल फिरदौस नसीब फ़रमाए। आमीन!!!

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