इंसान रूह और जिस्म के मजमूआ का नाम है, जिस्म रूह के बिना लाश और रूह जिस्म के बिना लाशई है। जिस्म मिट्टी से बनाया गया, जबकि रूह की तख़्लीक़ पर अभी असार के परदे पड़े हुए हैं। जिस्म फ़ेअल-ए-ख़ुदावंदी और रूह अम्र-ए-ख़ुदावंदी है। जिस्म की ज़रूरतों का सामान और एहतिमाम अल्लाह तआला ने ज़मीन से किया, जैसे चावल, आटा, सब्ज़ियाँ और पानी वग़ैरा सब ज़मीनी अशियाएँ हैं, जबकि रूह की तमाम ग़िज़ाएँ आसमान से उतरी हैं, जैसे सिद्क़, अमानत, हया, आजिज़ी वग़ैरा। यानी वे तमाम अहकाम जिनका इंसान को मुक़ल्लफ़ और ज़िम्मेदार बनाया गया, वे सब रूह की ज़रूरतें हैं, जिनके बजा लाने पर रूह ताक़तवर होती है और तरक पर कमज़ोर।
            इबादतें भी रूह की ग़िज़ा हैं, लेकिन दो इबादतें ऐसी हैं, जिनके बारे में यह कहा जा सकता है कि ये दो इबादतें रूह की ताक़त के साथ-साथ जिस्म को भी फ़ायदा पहुँचाती हैं एक नमाज़ और दूसरी इबादत रोज़ा। नमाज़ जिस तरह बातिनी तौर पर क़ल्बी सुकून व तमानिनत का ज़रिया है, उसी तरह नमाज़ के क़याम, क़ऊद, रुकू और सज्दा इंसानी जिस्म में मुफ़ीद तब्दीलियों के ज़ामिन भी हैंकृ बशर्ते कि मसनून तरीक़े पर अदा की जाए। यही हाल रोज़ा का भी है। रोज़ा के बारे में यह कहना बिल्कुल ग़लत होगा कि यह सिर्फ़ और सिर्फ़ हुसूल-ए-तक़वा का सबब और रूह की ताक़त का ज़रिया है क्योंकि जदीद व क़दीम तिब्ब के मुतालिआ से यह बात साबित होती है कि रोज़ा जिस्मानी निज़ाम की भलाई व बेहतरी में इतना मोअस्सिर है कि कई अत्तिबा व हुकमा इसे एक नुस्ख़े के तौर पर अपने मरीज़ों को दिया करते थे। रोज़ा के जिस्मानी फ़वाइद से पहले उसके रूहानी मनाफ़े का इल्म ज़्यादा मुनासिब है, क्योंकि एक मोमिन की नज़र फ़ना होने वाली दुनिया और बोसीदा होने वाले जिस्म के बजाय बाक़ी रहने वाली आखि़रत पर होनी चाहिए।
            रोज़ा के रूहानी फ़वाइदः

            तक़वा के हुसूल में आसानी तक़वा वह चीज़ है जिसका मुतालबा अल्लाह तआला ने क़ुरआन मजीद में अपने बंदों से कई बार किया है। तक़वा दिल की उस कैफ़ियत को कहते हैं जिसमें इंसान अल्लाह की बड़ाई और उसकी अज़मत को सामने रखते हुए गुनाह के ख़याल को भी दिल में भटकने न दे। सूरा बक़रा की आयत 183 में इस तक़वा के हुसूल का आसान रास्ता रोज़ा को बताया गया है। एक महीने के मुस्तक़िल रोज़ों की बरकत से दिलों का ज़ंग दूर होता है, जो तक़वा के हुसूल की पहली सीढ़ी या इस रास्ते का पहला क़दम है।

           गुनाहों की माफ़ीः

रमज़ानुल-मुबारक को रमज़ान का नाम इसीलिए दिया गया है क्योंकि यह गुनाहों को जला कर ख़त्म कर देता है।(कंज़ुल उमालः 88632) इब्ने अबी दुन्या रह0 ने अपनी किताब फ़ज़ाइल-ए-रमज़ान में हज़रत अबू हुरैरह रजि0 के हवाले से यह रिवायत नक़्ल की है कि रसूलुल्लाह स0अ0व0 ने इरशाद फ़रमायाः “रमज़ान का महीना, आइंदा आने वाले माह-ए-रमज़ान तक के गुनाहों का कफ़्फ़ारा है।“ (फ़ज़ाइल-ए-रमज़ानः इब्ने अबी दुन्या 63) यानी रोज़ेदार के रोज़ों की बरकत से न सिर्फ़ पिछले गुनाह माफ़ होंगे, बल्कि आइंदा रमज़ान तक अगर उससे कोई भूल-चूक हो भी जाए, तब भी इस रमज़ान के रोज़ों की बरकत से वह गुनाह भी बख़्शे जाएंगे। ज़ाहिर है यह फ़ज़ीलत उसी शख़्स को हासिल होगी जो माहे रमज़ान से फ़ायदा उठाते हुए मुकम्मल गुनाहों से तौबा कर ले और आइंदा भी बचने का अज़्म करे, फिर भी अगर शैतान के भटकावे में आ भी जाए तब भी रहमत-ए-ख़ुदावंदी तो बहाने ढूंढती है।

मशहूर हदीस-ए-कुदसी हैः (बुखारी शरीफ़ः 4729) “कि रोज़ा मेरे लिए है और मैं ही इसका बदला दूँगा।“ और यह बदला कैसा होगा, यह तो रब-ए-ज़ुल्ज़लाल ही जानता है, लेकिन अहादीस में इस जानिब इशारा ज़रूर किया गया है, जैसे हज़रत इब्ने अब्बास रज़ि0 की रिवायत है कि रोज़-ए-क़यामत रोज़ेदारों के लिए एक ख़ुसूसी दस्तरख़ान लगाया जाएगा जो सोने का होगा, रोज़ेदार उससे खाएँगे जबकि लोग देख रहे होंगे। (कंज़ुल उम्मालः 54632) एक और रिवायत में मज़कूर है कि जन्नत के आठ दरवाज़े हैं जिनमें से एक दरवाज़े का नाम “रय्यान“ है, जिससे सिर्फ़ रोज़ेदार जन्नत में दाखि़ल होंगे। (बुखारी शरीफ़ः 7523)
यह तो सिर्फ़ ब-तौर-ए-मिसाल वे फ़वाइद ज़िक्र किए गए हैं जो असल और बुनियाद हैं। इनके अलावा रोज़े के तमाम रूहानी फ़वाइद अगर बिल-इस्तियाब ज़िक्र किए जाएँ तो एक मुफ़स्सल किताब तैयार होगी। इन रूहानी फ़वाइद के अलावा जिस्मानी मुनाफ़े भी हैं जो रोज़ेदार को हासिल हो सकते हैं।

             रोज़ा के जिस्मानी फ़वाइद
           जिस्मानी फ़वाइद का अहादीस में तज़किराः

हज़रत अबू हुरैरह रज़ि0 से हदीस मर्वी हैः हज़रत रसूलुल्लाह स0अ0व0 ने इरशाद फ़रमाया कि रोज़े रखा करो, सेहतमंद रहोगे।“(मजमऊज़ ज़वाइदः 5070) हज़रत अनस रज़ि0 ने रिवायत नक़्ल कीः “रोज़ा गोश्त को हल्का करता है यानी कम करता है और जहन्नम की आग से दूर करता है।“ (अल-मुअज्जम अल-औसत तबरानीः 3449) एक और रिवायत में मज़्कूर हैः “तुम अपने ऊपर रोज़ा को लाज़िम कर लो, क्योंकि रोज़ा जिस्म से मस्ती और अकड़ को ख़त्म करता है और रगों का ख़ून कम करता है।“ (कंज़ुल उमालः 32610) बैहक़ी ने हज़रत अली कर्रमल्लाहु वज्हु से यह रिवायत नक़्ल की है जिसमें आंहज़रत स0अ0व0 इरशाद फ़रमाते हैंः “अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने अंबिया-ए-बनी इसराईल में से एक नबी को यह वही की कि आप अपनी क़ौम को ख़बर दें कि जो बंदा भी मेरी रज़ा व ख़ुशनूदी के लिए रोज़ा रखेगा, मैं उसके जिस्म को तंदुरुस्त कर दूँगा और उसके अजर को बढ़ा दूँगा।“

           आज के दौर में ज़्यादातर बीमारियाँ मोटापे और वज़न के बढ़ने से वाबस्ता हैंकृ चाहे शुगर हो या बीपी, थाइराईड हो या जोड़ और घुटनों में दर्द। इन बीमारियों के लिए डाॅक्टर जहाँ लंबी-चैड़ी दवाओं की फ़ेहरिस्त मरीज़ के हाथ में थमाते हैं, वहीं वज़न कम करने की नसीहत भी करते हैं। बल्कि यहाँ तक तलक़ीन की जाती है कि इन दवाओं का फ़ायदा ही वज़न कम करने से होगा, वरना नहीं। वज़न कम करने में जहाँ कम खाने को दख़्ल है, वहीं कभी-कभी फ़ाक़ा भी मौसिर होता है। इतालवी-अमेरिकी डाॅक्टर वाल्टर डी लोंगो, जिन्होंने क़ुदरती उम्र बढ़ाने और बुढ़ापे को पीछे ढकेलने पर तहक़ीक़ की, अपनी तहक़ीक़ में ’फासिंटग’ को ही एक वाहिद हल और इलाज से ताबीर करते हैं, जिससे उम्र में इज़ाफ़ा हो सकता है। इस सवाल के जवाब में कि “रोज़ा रखने या भूखा रहने से अगर उम्र में इज़ाफ़ा न भी हो, तब भी ख़तरनाक बीमारियों से हिफ़ाज़त ज़रूर हो जाती है।“ अल्लाहु अकबर! दुनिया सर खपा कर जहाँ पहुँच रही है, हमारी शरीअत ने हमें वहाँ से जीना सिखाया है।

निज़ाम-ए-हज़्म की दुरुस्तगीः

    रोज़ा में 10 से 14 घंटे तक मेदे को जो आराम मिलता है, वह सेहत के लिए बहुत मुफ़ीद होता है। इंसानी जिस्म में हाज़मा का निज़ाम बहुत से मिले-जुले आज़ा पर मुश्तमिल है। यह सिलसिला मुँह, ज़बान, दाँतों से शुरू होकर गले और गले से मेदे तक जाने वाली नाली से होता हुआ जिगर और आँतों पर ख़त्म होता है। अतिब्बा और डाॅक्टर्स के मुताबिक़, इस पूरे निज़ाम की भलाई और दुरुस्ती के लिए यह ज़रूरी है कि इन्सान साल भर में कम-अज़-कम एक महीना इसे आराम का मौक़ा दे, ताकि फिर से यह बेहतर कारदगी शुरू कर दे। इस सारे निज़ाम में जिगर वह अज़ू है जिसे तक़रीबन 15 काम करने पड़ते हैं, और एक रोज़ेदार रोज़े की हालत में इस जिगर को भरपूर आराम करवाता है। (विकिपीडियाः जिगर) लाइव स्ट्राॅन्ग नामी वेबसाइट, जो सेहत से मुताल्लिक़ मवाद फ़राहम करती है, उसके मुताबिक़ हर माह कम-अज़-कम 24 घंटे बिना कुछ खाए अपने जिगर को आराम देना ज़रूरी है।


दौरान-ए-ख़ून में बेहतरीः रमज़ानुल-मुबारक के रोज़े हमें ग़िज़ाई बे-इतेदालियों से रुकने में मददगार साबित होते हैं। यह बात अब कोई ढकी-छुपी नहीं रही कि मुरग़्न ग़िज़ाओं और चरबीदार सालनों से ख़ून का दौरान रगों और दिलों के दरमियान चरबी की वजह से ख़तरनाक हद तक सुस्त पड़ जाता है, जिसके नतीजे में दिल का दौरा पड़ता है।रोज़े की हालत में यह चरबी पिघलती है और ख़ून का दौरान अपनी रफ़्तार पर आ जाता है। याद रखिए! इन फ़वाइद के हुसूल के लिए सहरी और बिल-ख़ुसूस इफ़्तारी में चरबी वाली चीज़ों और ज़्यादा खाने से परहेज़ करें, वरना मामला ज्यों का त्यों रहेगा।
यह वे चंद जिस्मानी व ज़ाहिरी फ़वाइद हैं, जिनकी तलाश में आज दुनिया का हर इंसान है। अल्लाह तआला ने अपने फ़ज़्ल से यह फ़वाइद अपनी इबादतों में रखकर मुसलमानों को इस मुकल्लफ़ व ज़िम्मेदार बनाया है।

अल्लाह पाक! दीन की सही क़द्रदानी की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए।

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