
अज़ीज़ बहनो! यह क़िस्सा जो आप पढ़ने जा रही हैं, एक नौजवान पढ़ी-लिखी फ़िलिस्तीनी लड़की का है, जो एक माडर्न घराने से ताल्लुक रखती थी। एक ऐसा घराना जहाँ हिजाब या नक़ाब का कोई तसव्वुर नहीं था। फ़िलिस्तीन अंबिया की सरज़मीन है जिस पर इसराइलीयों ने ग़ासिबाना क़ब्ज़ा कर रखा है। कभी वहाँ पर अमन-ओ-चैन था। फ़िलिस्तीनी हाकिम थे, मगर अब वहाँ पर इसराइली फ़ौजी मज़लूम फ़िलिस्तीनियों पर मज़ालिम ढाते हैं, उन्हें मुसलसल तशद्दुद और तअज़ीब में मुबतला रखते हैं। सफ़र के दौरान कई मक़ामात पर रोक लिया जाता है, जहाँ लंबी-लंबी क़तारें बनाकर उनकी तलाशी ली जाती है, उन्हें जानबूझकर मंज़िल पर पहुँचने में ताख़ीर से दो-चार किया जाता है, वक़्त ज़ाया किया जाता है। ख़्वातीन की तौहीन की जाती है, ख़ास तौर पर नक़ाबपोश ख़्वातीन की तज़हीक उड़ाना इसराइली फ़ौज का महबूब मशग़ला है, उनका नक़ाब उतरवाया जाता है। मगर इन मज़ालिम के बावुजूद ऐसी बच्चियों की कमी नहीं जो अपने रब की रज़ा के लिए नक़ाब की पाबंदी करती हैं और हर मुश्किल को बर्दाश्त करती हैं। यह कहानी भी एक ऐसी ही दोशीज़ा की है जिसको अल्लाह तआला ने हिदायत दी और उसने नक़ाब करना शुरू कर दिया। यह अज़ीमत की ख़ूबसूरत दास्तान है, यह रौशनी की किरन है। इस कहानी में कितने ही दरूस हैं। आइए, इसी फ़िलिस्तीनी लड़की की ज़बानी सुनते हैं।
मैं फ़िलिस्तीन की रहने वाली हूँ, एक ऐसे मुस्लिम घराने से ताल्लुक़ रखती हूँ जिसका मज़हब से महज़ वाजिबी सा ताल्लुक़ है। यहाँ गाने सुनना और मौसीक़ी से दिल बहलाना आम सी बात है। मैं ख़ूब गाने सुनती, टेलीविज़न पर फ़िल्में देखती, मेरे घर वाले भी दीन से मुकम्मल दूर थे। अचानक मेरी ज़िंदगी में इंक़लाब आता है। कॉलेज में मेरी कुछ ऐसी लड़कियों से दोस्ती हो जाती है जो दीनदार, पर्देदार और नक़ाब करने वाली थीं। मगर मैं उन लड़कियों में से थी जो इंटरनेट का इस्तेमाल ख़ूब किया करती थी और घंटों कंप्यूटर के सामने बैठकर दोस्तों से चैटिंग करती। इंटरनेट के इस्तेमाल के दौरान बाअज़ औक़ात इस्लामी सफ़हात भी खुल जाते और उन पर इबारत लिखी होती “नक़ाब फ़र्ज़ है। बेपर्दा फिरना इस्लाम में जाइज़ नहीं।“ इस मौज़ू पर उलमा की तक़ारीर भी मौजूद होतीं। मैं उनको सुनती, इंकार करती, तफ़सीर करती और मुँह चिढ़ाती कि यह मौलवी लोग ऐसे ही होते हैं। इस्लाम में इतनी सख़्ती नहीं है, नक़ाब कहाँ फ़र्ज़ है?
यह शक व शुबहा मुसलसल चलता रहता। मैं आम तौर पर ऐसी तक़ारीर ही सुनती जिनमें पर्दे पर गुफ़्तगू की गई होती, मगर फिर भी कभी-कभार इस मौज़ू पर कोई आर्टिकल पढ़ लेती या तक़रीर सुन लेती। यूनिवर्सिटी की दोस्तों से गुफ़्तगू चलती रहती, वो मुझे दलाइल देतीं, मेरे सवालों के जवाब देतीं। इस तरह मेरा ज़हन आहिस्ता-आहिस्ता हिजाब के लिए तैयार हो गया। फिर एक दिन मैंने इस मौज़ू पर लिखी हुई बेहतरीन किताब “आउदतुल हिजाब“ का मुताला किया। मेरे दिल-ओ-दिमाग़ के दरवाज़े खुलते चले गए। मुझे मौलिफ़ के दलाइल ने ख़ामोश कर दिया। पहले मैं बिला शुबहा ग़फ़लत में थी। मुफस्सिरीन के अक़वाल, उनके दलाइल, उलमा-ए-किराम और फुक़हा-ए-एज़ाम ने इस मौज़ू पर बड़ा ही उम्दा लिखा था। मैं उनके सामने लाजवाब हो गई।
मैंने तसव्वुर में एक नक़ाबपोश औरत को देखा जो आईने के सामने खड़ी है और फिर यह तसव्वुर और नक़ाबपोश औरत मेरे पेक़र में ढल गई। मेरे लिए नक़ाब पहनना आम सी बात न थी। मुझे इसके लिए अपने नफ़्स के साथ बाक़ायदा जंग करनी पड़ी, क्योंकि मैं इस राह की मुश्किलात से आगाह थी। मैं सोच भी न सकती थी कि कभी नक़ाब पहनूँगी। मैंने सोचाः यक़ीनन मैं अपने ख़ानदान में पहली पढ़ी-लिखी लड़की हूँगी जो नक़ाब पहनेगी। मैं अपने नफ़्स से लड़ती रही और अपने आपको ज़ेहनी और अमली तौर पर तैयार कर लिया कि मुझे हुक्मे-इलाही को मानना होगा। अल्लाह तआला की इताअत और फ़रमाँबरदारी किए बग़ैर कोई चारा नहीं।
फिर वह वक़्त भी आ गया कि मैंने अपने आपको तैयार करना शुरू किया। अब इस फ़ैसले से वालिदैन को आगाह करने का मरहला दरपेश था। मैं अपने घर के माहौल से ख़ूब वाक़िफ़ थी। यह तो अंदाज़ा था कि वो इंकार करेंगे, मगर उनका रद्दे-अमल इस क़दर सख़्त होगा, इसका अंदाज़ा न था। एक दिन हिम्मत करके मैंने अपनी वालिदा को बता ही दिया कि अल्लाह और उसके रसूल स0अ0व0 के हुक्म की तामील करते हुए मैं नक़ाब पहनूँगी। यह सुनना था कि वालिदा का चेहरा ग़ुस्से से सुर्ख़ हो गया, उनके नथुने फड़कने लगे, उन्होंने चीख़कर कहा, “तुम पागल हो गई हो। तुम मजनून और दीवानी हो। लोग क्या कहेंगे? अपने इस फ़ैसले को फ़ौरन बदल डालो, आराम से रहो।“ मैंने पूरी कोशिश की कि मैं उन्हें क़ायल कर सकूँ, अपने दलीलें दूँ, उनके साथ मुनाकशा करूँ। मैंने कहा, “अम्मी चलिए गुफ़्तगू कर लेते हैं, बहस-मुबाहसा करते हैं। मैं आपको बताती हूँ कि मैंने यह फ़ैसला क्यों किया है। मैं आपको अपने दलीलें दूँगी।“ वालिदा ने डाँटते हुए कहा, “इस मसले में किसी किस्म के बहस-मुबाहसे की ज़रूरत नहीं। अपने फ़ैसले को बदल दो। इसमें गुफ़्तगू की गुंजाइश नहीं।“
मैंने अपने सर को झुका लिया और अपने कमरे की तरफ़ चल दी मगर हरगिज़ मायूस न थी। मैंने सोचा, “कोई बात नहीं, मैं वालिदा को मना लूँगी।“ हाँ, अपने वालिद से बात करती हूँ। वह मेरे ज़्यादा क़रीब हैं। कितने ही मामलात में उन्होंने मेरी मदद की है। मुझे यक़ीन है कि वह मेरी बात सुनेंगे और समझेंगे। मैं अपने वालिद का दफ़्तर से आने का इंतज़ार करने लगी।
जब वालिद साहब दफ़्तर से घर आए, तो मैंने कहा, “अब्बू, आपसे अलग से कुछ बात करनी है।“ मैंने आहिस्ता-आहिस्ता बात शुरू की। मैं अपने मौज़ू पर आना चाहती थी। मेरे वालिद ने अचानक गरजदार आवाज़ में कहा, “जल्दी से बोलो, तुम क्या चाहती हो?“ मेरा जवाब था, “मैं नक़ाब करना चाहती हूँ।“ मेरे वालिद खड़े हो गए और दूसरे कमरे की तरफ़ चल दिए। फिर करख़्त लहजे में उनकी आवाज़ आई, “अपने दिमाग़ और दिल से इस ख़याल को निकाल दो। यह नामुमकिन है।“ वह सख़्त नाराज़ थे। ग़ुस्से में बड़बड़ा रहे थे, “यह मुल्लानी कहाँ से आ गई है?“
वालिद का खि़लाफ़ तवक्क़ो सख़्त जवाब सुनकर मुझे बेहद सदमा हुआ। मैं तो उनके बहुत क़रीब थी। वह बड़ी मोहब्बत और शफ़क़त से पेश आया करते थे। मुझे याद है कि मैं अपने कमरे में जाकर ख़ूब रोई।
मेरी एक क़रीबी रिश्तेदार थी, जिसके साथ मैंने कई मरतबा अपने कुछ मामलात में मशविरा किया था। मैं उसके बहुत क़रीब थी। सोचा कि उसकी मदद हासिल करूँ। उसका जवाब था, “तुम्हें अपने वालिदैन की बात माननी चाहिए। तुम हरगिज़ उनकी नाफ़रमानी न करो। हाँ, मुमकिन है कि मुस्तक़बिल क़रीब में हालात तुम्हारे लिए साज़गार हो जाएँ। फिलहाल तुम पर्दा न करो।“
मैंने अपना मामला अपने रब के सुपुर्द कर दिया। उससे दुआएँ माँगीं। जब भी कहीं मुझे मौक़ा मिलता, मैं वालिदा से बात करती। एक मर्तबा, दो मर्तबा, तीन मर्तबा मगर मैं थकी-हारी नहीं। अपना मौक़िफ़ बयान करती रही। उन्हें क़ायल करने की कोशिश जारी रही। यहाँ तक कि इसी जद्दोजहद में तीन महीने गुज़र गए। मेरे घरवाले अपने साबिक़ा मौक़िफ़ पर क़ायम थे।
एक दिन मेरी एक दोस्त मेरे घर आई। यह भी नक़ाब पहनती है। उसने बताया कि उसके घरवाले बड़े सख़्त हैं। उसे नक़ाब पहनने पर मारते भी हैं। उसे धमकियाँ देते हैं कि वह उसे यूनिवर्सिटी से निकाल देंगे। उसने बताया कि जब उसने हिजाब का एहतिमाम किया, तो उसकी गली के बच्चे उस पर कंकड़ियाँ फेंकते थे। उस पर आवाज़ें कसते थे। मगर इसके बावजूद वह उम्महातुल मोमिनीन के लिबास को पसंद करती और उसका एहतिमाम करती रही।
मैंने अपनी दोस्त का पुरज़ोर अंदाज़ में इस्तक़बाल किया। उसके पास बैठी रही। उसका क़िस्सा सुना, तो मेरे जिस्म में एर्तेआश पैदा हो गया। मेरे अंदर मजीद हिम्मत और ताक़त आई। मैंने अपना पर्स खोला, उसमें से नक़ाब निकालकर उसे दिखाया। मैंने यह नक़ाब छुपाकर रखा हुआ था कि जैसे ही और जिस दिन मेरे वालिदैन मुझे पर्दा करने की इजाज़त देंगे, मैं फ़ौरन पर्दा करना शुरू कर दूँगी।
मैंने इस अज़्म का इज़हार किया कि मैं अपने मौक़िफ़ से किसी सूरत पीछे नहीं हटूँगी और लाज़िमन हिजाब पहनूँगी। और फिर मैंने एक रात इस्तिख़ारा किया। रात को सोने लगी, तो अज़्मे सलीम कर लिया कि कल से पर्दा शुरू कर दूँगी। मैं उन दिनों हॉस्टल में मक़ीम थी। मेरा घर यहाँ से दूर था।
फज्र की नमाज़ हम दोस्तों ने इकट्ठी अदा की। मैंने सूरह अद-दुहा की तिलावत शुरू कर दीः “
“ फिर मैंने अपनी वालिदा को फ़ोन किया, “हेलो मामा, मैंने आज से हिजाब करना शुरू कर दिया है।“ इस मौक़े पर वालिदा का चीख़ना-चिल्लाना मैं आज तक नहीं भूली। वह सख़्त नाराज़ थीं। उन पर सदमे की सी कैफ़ियत तारी हो गई। वह मुझे कोस रही थीं, डाँट रही थीं और मैं मुस्कुरा रही थी। इसे राज़ी करने की कोशिश कर रही थी। फोन बंद हो गया। मैंने सोचाः “अम्मी का रद्द-ए-अमल (प्रतिक्रिया) वक़्ती है। थोड़ी देर में ठीक हो जाएँगी।“ मगर यह क्या! थोड़ी ही देर बाद वालिदा का फोन आ गया। “फ़ौरन हिजाब उतार दो! और सुनो, अगर तुमने न उतारा तो मैं जल्द ही तुम्हारे पास पहुँचकर तमाम लोगों के सामने इसे नोचकर उतार दूँगी।“
मुझे याद है कि जब मेरे वालिद को मालूम हुआ, तो उन्होंने मेरे साथ बात करने से इनकार कर दिया। फिर मेरी बहन का फोन आ गया। उसने बतायाः “वालिद तुमसे सख़्त नाराज़ हैं। आज उन्होंने गुस्से में खाना भी नहीं खाया। वह इस क़दर नाराज़ हैं कि किसी से बात भी नहीं कर रहे।“
यह गुस्सा, यह नाराज़गी आखि़र किस बात पर? मैंने सोचना शुरू किया। मेरा क़सूर क्या है? मैं तो उम्महातुल मोमिनीन के नक़्शे-कदम पर चलने की कोशिश कर रही हूँ। बहरहाल, यह मुश्किल दिन भी गुज़र ही गया। मेरी दीनी बहनें मुझे मुसलसल हौसला देती रहीं। “तुम्हें मुबारक हो, बहन! अल्लाह तुम्हें इस्तिक़ामत दे।“
सूरज ग़ुरूब हो गया। मैं उस रोज़ कितनी ख़ुश और मुतमइन थी कि अल्लाह ने मुझे तौफ़ीक़ अता फरमाई और मैंने पर्दा करना शुरू कर दिया। अपने वालिदैन के रद्द-ए-अमल पर हैरान भी थी। मैंने सोचना शुरू किया कि मेरे वालिदैन नाराज़ हैं। क्या मैं उनकी नाराज़गी की मुतहम्मिल हो सकती हूँ? मेरे दिमाग़ में एक शैतानी ख़याल आया कि मैं पर्दा उतार दूँ, अपने वालिदैन को राज़ी कर लूँ। मैं अपने वालिदैन का दबाव बर्दाश्त न कर पाऊँगी। मुझे ख़ूब मालूम था कि वह मुझे माफ़ नहीं करेंगे। मैं पर्दा उतार दूँ? और फिर तमाम सहेलियों को बता दूँ कि मेरे पर्दा उतारने का सबब क्या है। उनको यक़ीन दिला दूँ कि मैं हिजाब पहनकर नादिम नहीं। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी सहेलियाँ नक़ाब को बुरा तसव्वुर करें। इस तरह ख़यालात आते और जाते रहे। लेकिन आखि़रकार मैं वालिदैन के सामने मजबूर हो गई। मेरे लिए वह लमहात बड़े मुश्किल और गरां थे, जब मैं एक मर्तबा फिर नंगे मुँह बाहर निकली। मुझे ऐसा महसूस हो रहा था कि मैंने निहायत क़ीमती चीज़ खो दी है। वक़्त गुज़रता गया। मैंने वक़्ती तौर पर नक़ाब उतार दिया था। मगर मैं अपने वालिदैन को यक़ीन दिलाना चाहती थी कि मेरे दिमाग़ से पर्दे का तसव्वुर निकला नहीं। इस लिए मैंने चेहरे को तो न ढाँपा, अलबत्ता हाथों में काले रंग के दस्ताने पहन लिए। मैं चाहती थी कि मेरे घरवाले अपने मौक़िफ़ पर नज़र-ए-सानी करें और मुझे पर्दा करने की इजाज़त दे दें।
आने वाले हफ़्ते जब मैं हॉस्टल से घर गई, तो घरवालों का रवैया बड़ा अच्छा था। उन्होंने पर्दे के मौज़ू पर मुझसे कोई बात न की। दस्तानों को देखा, मगर उन पर कोई तफ़्सिरा न किया, बल्कि चश्मपोशी से काम लिया। ग़ालिबन वह यही समझ रहे थे कि इस लड़की के दिमाग़ में वक़्ती फितूर आया है। चंद दिनों की बात है, यह पर्दा-वग़ैरा भूल जाएगी। मैंने इशा की नमाज़ अपने घर के दालान में अदा की और अपने हाथों को बारगाह-ए-इलाही में उठा लिया। “मेरे रब! मैं तो तुझे राज़ी करना चाहती हूँ। अपनी इताअत और फरमांबर्दारी पर मेरी मदद फरमा। मेरे रब! क्या तू मुझे यूँ ही छोड़ देगा? मेरे रब! मुझे कभी बेज़ार-ओ-मददगार न छोड़ना। इस मुश्किल में मेरी मदद ज़रूर करना। उस रोज़ जब मैं दुआ माँग रही थी, तो मुझे उसकी कबूलियत का यक़ीन होता चला जा रहा था। मुझे यूँ लग रहा था कि मेरा रब ज़रूर मेरी मदद करेगा और पर्दे के हवाले से जो रुकावटें हैं, उन्हें दूर करेगा। मुझे यूँ महसूस हो रहा था कि जैसे ही मैं दुआ ख़त्म करूँगी, मेरे वालिद मेरे पास आएँगे और कहेंगेः “बेटी, जाओ और जाकर नक़ाब पहन लो।“ मैं अपने वालिद के साथ टीवी लाउंज में बैठ गई। सोफे बड़े आरामदह थे। सामने टीवी की बहुत बड़ी स्क्रीन रखी हुई थी। सामने की मेज़ पर रिमोट कंट्रोल रखा हुआ था। मैंने उसे अपने हाथों में पकड़ लिया और ला-शऊरी तौर पर टीवी के साथ खेलने लगी। कितने ही सैटेलाइट चैनल्स बदल-बदलकर देख रही थी। मेरी उँगलियाँ मुसलसल हरकत में थीं कि अचानक मेरी उँगलियाँ रुक गईं। सामने टीवी पर फ़ज़ीलत-उश-शेख़ मोहम्मद हुसैन याक़ूब का प्रोग्राम चल रहा था। वह कह रहे थेः
“हाँ, तो मेरी पर्दा दार बहन! तुम्हें पर्दा करने की पादाश में सताया जा रहा है। तुम्हें तंग किया जा रहा है। पर्दा उतारने पर मजबूर किया जा रहा है। तुम दीनी इल्म सीखना चाहती हो और तुम्हारे साथ मज़ाक किया जाता है। ताना दिया जाता है। हाँ, मेरी बेटी, मेरी बहन। अल्लाह के साथ तुम्हारे ताल्लुक़ का क्या हाल है? क्या तुम अपने ईमान और दीन से मुतमइन हो? पर्दा करने पर राज़ी हो, तो इस पर इस्तिक़ामत इख़्तियार करो। दिल बरदाश्ता न हो, कोई बात नहीं, हिम्मत करो, अपने ईमान को मज़बूत करो।
यह कैसा हुस्न-ए-इत्तेफ़ाक़ था कि जो कुछ मेरे साथ हो रहा था शेख़ कमोबेश वही बयान कर रहे थे, मेरा ख़याल था कि मेरे वालिद मुझे हुक्म देंगे कि बंद करवा इसे मगर मैं यह देख रही थी कि वो बड़े ध्यान से इस गुफ़्तगू को सुन रहे थे।
शेख़ मुहम्मद हुसैन ने अपना रुख़ बदला, अब वो बड़े प्यार से वालिदैन से मुख़ातिब थे या अख़ी, ओ मेरे प्यारे भाई! क्या तुम अपनी बेटी को पर्दा करने से मना करते हो, उसे क्यों मना करते हो? इस नेकी और ख़ैर के काम से क्यों रोकते हो? मैं शेख़ की बातें सुन रही हूँ तो सोच रही हूँ कि मेरे रब तू कितना करीम है। यह तो मेरे दिल की आवाज़ है। मैं फूट-फूट कर रोने लगी, मेरे वालिद मुझे हैरत से देख रहे हैं जबकि साथ ही शेख़ की गुफ़्तगू भी मुकम्मल ध्यान से सुन रहे हैं।
शेख़ कह रहे हैंः मेरे भाई अगर पर्दा फ़र्ज़ है तो क्या तुम क़यामत के दिन अल्लाह रब्ब-उल-इज़्ज़त के सामने खड़े हो कर जवाब दे सकोगे? मेरे रब! मैंने अपनी बेटी को पर्दा करने से मना किया था? मेरे भाई! अगर पर्दा नबी करीम स0अ0व0 की सुन्नत है तो क्या तुम्हारे अंदर इतनी ताक़त और हिम्मत है कि क़यामत के दिन अल्लाह के रसूल स0अ0व0 से कह सको किः हाँ, या रसूलुल्लाह स0अ0व0 ! मैं आप स0अ0व0 की सुन्नत से टकराता रहा, इसकी मुख़ालिफ़त करता रहा? या अख़ी! अपने रब का शुक्र अदा करो कि तुम्हारी बेटी राहे रास्त पर है, अपनी बेटी के रास्ते में रुकावट न बनो, उसे पर्दा करने दो, वह तो सतर चाहती है। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारी बेटी मॉडल गर्ल बने, वह फैशन शो में पेश हो, वह ग़ैर सातर लिबास पहने?
शेख़ की तक़रीर जारी रही, मेरे वालिद साहब मुबहूत हो कर इसे सुनते रहे, फिर वह बग़ैर कोई तब्सिरा या बात किए सोने के लिए कमरे में चले गए। एक घंटा या डेढ़ घंटा गुज़र गया, न जाने मुझे क्या ख़याल आया, मैंने क़लम और वर्क़ उठाया, मैं राइटिंग टेबल पर बैठ गई, मैंने लिखना शुरू किया, इख़लास दिल से, बड़ी मुहब्बत और प्यार से, अश्कों की बरसात में, निहायत दर्द-ए-दिल से, अपने वालिदे गरामी के नाम एक ख़त। बड़ा ख़ूबसूरत सा ख़त। वालिदे मुहतरम, बराए मेहरबानी मुझे पर्दा करने की इजाज़त दे दें, मुझ पर रहम करें। मैं आपसे कितनी मुहब्बत करती हूँ, मामा को कितना चाहती हूँ, मेरे दिल की तमन्ना है कि आप मुझसे राज़ी और ख़ुश रहें, मगर आपसे भी ज़्यादा मैं अपने रब को राज़ी देखना चाहती हूँ। मेरी दिली तमन्ना है कि मैं शरीअत की पासदारी करूँ, मैं इसके अहकामात को मानना चाहती हूँ। फिर मैंने उनके शुबहात के जवाब लिखेकृमेरी शादी, इसराइली तफ्तीश के मराकज़, यूनिवर्सिटी, नौकऱी, वग़ैरह वग़ैरह।
मैंने ख़त को ख़त्म किया और उसे अपने वालिद की क़मीस की जेब में डाल दिया। अगले रोज़ मैं फिर यूनिवर्सिटी चली गई। वक़्त गुज़रता गया, मेरे वालिद की तरफ़ से कोई जवाब न मिला। मैं सख़्त ख़ौफ़ज़दा थी। क्या हसब-ए-साबिक़ मेरे वालिद इनकार कर देंगे? मैं दुआएँ माँगती रही। एक दिन फ़ोन की घंटी बजी। दूसरी तरफ़ मेरे वालिद बोल रहे थे, कहने लगे तवक्कल अलल्लाह, मैं तुम्हें पर्दा करने की इजाज़त देता हूँ। दो दिन बाद वालिदा मुहतरमा का भी फ़ोन आ गया, उन्होंने भी अपनी रज़ामंदी का इज़हार कर दिया। फाल-हम्दु लिल्लाहि अला ज़ालिक!
आज अल्लाह का शुक्र है कि मैं पूरे फ़ख़्र के साथ मुकम्मल हिजाब और नक़ाब के साथ घर से बाहर निकलती हूँ। मुझे इस से इतनी सआदत और ख़ुशी मिलती है कि बयान से बाहर है। मैं इस बारे में अपने रब के अहकामात की तामील में कामयाब रही। अल्लाह तआला मेरे वालिदैन को जज़ा-ए-ख़ैर अता फ़रमाए, उन्हें जन्नतुल फ़िरदौस में अल्लाह के रसूल स0अ0व0 की हमसाईगी नसीब फ़रमाए। (आमीन)
मुअज्ज़िज़ क़ारईन! आप सोच रहे होंगे कि क्या किसी मुस्लिम घराने में ऐसा मुमकिन है कि एक लड़की को नक़ाब पहनने के जुर्म में मारा जाता हो, उसे बुरा-भला कहा जाता हो? अगर हमें यह कहा जाए कि फलाँ लड़की को बुर्क़ा या नक़ाब न पहनने के जुर्म पर वालिदैन ने मारा है तो तस्लीम कर लिया जाएगा। मगर अम्र-ए-वाक़िआ है, यह मेरे ज़ाती इल्म में है कि वाक़ई ऐसे घराने मौजूद हैं जो दीन से बेज़ार हैं, वे पर्दे से नफ़रत करते हैं। वे अपने आप को मुस्लिम ज़रूर कहते हैं, मगर इस्लामी अक़्दार से कोसों दूर हैं। (मुअल्लिफ़ की डायरी से)

