तकब्बुर और ख़ुद्दारी | Arrogance / Pride (in a negative sense and Self-respect / Dignity

आम तौर पर लोग दीनदारी और ख़ुद्दारी, तकब्बुर व ग़ुरूर और तवाज़ो को लेकर बड़ी उलझन में रहते हैं। कोई एक शख़्स ही उनको कभी दीनदार लगता है, तो मिनटों में वही मग़रूर लगता है। तो सैकंडों में वो मता​वाज़े लगता है। और कुछ ही देर में वही ख़ुद्दार महसूस होता है, लेकिन अगली मुलाक़ात में वही फिर मुतकब्बिर लगता है। लेकिन क्या कोई एक ही शख़्स बेक़ वक़्त मुतकब्बिर और दींदार हो सकता है? और अगर ऐसा है तो क्या वह अल्लाह तआला के यहाँ मक़बूल है? और दरअसल मुसलमान को होना कैसा चाहिए? सिर्फ़ ख़ुद्दार मुतकब्बिर, या दीनदार मुतकब्बिर, या दीनदार मता​वाज़े वाला होना चाहिए। आख़रि अल्लाह तआला हमसे क्या चाहता है? और कहीं ये हमारी बदगुमानी तो नहीं है, या वाक़ई दींदारी आने के बाद ग़ुरूर आना क़ुदरती बात है। या फिर हम ख़ुद्दारी को घमंड का लिबास पहना रहे हैं? कहीं हमारी आँखें ही तो गर्दआलूदा नहीं हैं। क्या पता ये तवाज़ोदारी भी एक क़िस्म की मकारी हो? जिसके पर्दे में अपना ग़ुरूर छुपाया जा रहा हो। आइए इस फ़र्क़ को नबी स0अ0व0 हिदायत की रौशनी में पहचानने की कोशिश करें।

तकब्बुर और ख़ुद्दारी में फ़र्क़


ख़ुद्दारी एक अख़्लाक़ी वस्फ़(ख़ूबी) है। जिससे इंसान अपनी इज़्ज़त, मर्तबा और किरदार व शख़्सियत की हिफ़ाज़त करता है। जिस शख़्स में ये वस्फ़(Quality) न हो उसमें न तो आला नज़र की सिफ़ात(ख़ूबियाँ) होंगी और न ही सोच व फ़िक्र और ख़यालात की बुलंदी होगी, और फिर लोग भी उसकी इज़्ज़त नहीं करेंगे और न ही उसकी बातों को कोई अहमियत देंगे।


और न ही किसी महफ़िल में उसका वक़ार होगा। हर मुसलमान को अपने ईमान और इज़्ज़त व नामूस की हिफ़ाज़त के लिए ख़ुद्दार होना चाहिए। ताके वह बेहतरीन मुसलमान और नमूना-ए-अख़्लाक़ बनकर दुनिया को सच्चे मुसलमान की पहचान करा सके। सहाबा-ए-किराम रज़ि0 के दिल हमेशा इस्लामी तालीमात की वजह से ख़ुद्दारी से लबरेज़ और मआमूर(भरे) रहते थे। इसी वजह से सहाबा-ए-किराम रज़ि0 जब ख़लिफ़त के ज़माने में क़ैसर व क़िसरा के सामने जाते थे, तो वे अपनी ख़ुद्दारी से इस हद तक मुतमईन होते थे कि उनके सामने बेजिझक चले जाते थे। और उनके सवालों का जवाब बड़ी दिलेरी(बहादुरी) और आज़ादी से देते थे। सिर्फ़ अपने आका स0अ0व0 के पैग़ाम को फैलाने और पहुँचाने की फ़िक्र रहती थी क्योंकि उनको इस्लाम पर कामिल यक़ीन होता था कि वही उनकी नजात और अल्लाह की रज़ामंदी का बाइस होगा। इसी तरह आज भी सच्चे मुसलमान किसी की परवाह नहीं करते हैं, वह सिर्फ़ मज़हबी ग़ैरत और ख़ुद्दारी की फ़िक्र में रहते हैं। क्योंकि शरीफ़त का दूसरा नाम ही ख़ुद्दारी है। जिसकी हिफ़ाज़त इंसान को हर क़दम पर करनी चाहिए। चाहे लिबास हो, या बोल-चाल, या रहने-सहने का ढंग हो, हर चीज़ से इंसान की शरीफ़त का इज़्हार होना चाहिए। लेकिन इसमें एहतियात लाज़िम है। कई बार इस ख़ुद्दारी की हिफ़ाज़त में इंसान के अंदर से ख़ुदनुमाई(दिखावा) की बू आने लगती है, यही वह पैमाना है जहाँ से इंसान बे-राह हो सकता है। अक्सर देखने में आता है, ख़ुद्दारी कभी अपने हसब-ओ-नसब की शान दिखाने में दूसरों को एज़ा(तकलीफ़) पहुँचाती है, और कभी अपनी दौलत के नशे में। अब वह दौलत इल्म की भी हो सकती है, हुस्न की भी हो सकती है। ख़ानदानी शरीफ़त या अपने नसब की भी हो सकती है,

फिर इंसान ये कहता नज़र आता है कि भई मैं तो बड़ा ख़ुद्दार हूँ, मैं किसी की परवाह नहीं करता हूँ, क्योंकि (मैं बहुत बड़ा आलिम हूँ)(मैं बहुत बड़े ख़ानदान से हूँ)(मैं बहुत हसीन हूँ) ये ब्रैकेट वाले अल्फ़ाज़ उसके स्टाइल से साफ़ नज़र आते हैं, चाहे वह ज़बान से कहे या न कहे। मगर उसके इशारों से साफ़ ज़ाहिर होता है कि वह किसी की औक़ात अपने बराबर नहीं समझ रहा है। हालाँकि उसका नज़रिया तो ये होता है कि वह सामने वाले की इस्लाह कर रहा है। मगर दरअस्ल इसमें ख़ुद को नमायाँ करने और दूसरों को हक़ीर जानने का जज़्बा ऑटोमैटिक (Automatic) शामिल हो जाता है। यही वह अमल है जिससे ख़ुद्दारी, ग़ुरूर और नुमाइश में फ़र्क़ पहचाना जा सकता है। क्योंकि हर अमल की एक हद मुक़र्रर है। अगर इससे आगे जाओगे तो अपनी ख़ुदादाद ख़ुसूसियत(Specialty) को मसमार कर दोगे। और लोग ज़बान से कुछ कहें या न कहें, मगर दिल उनका आप की तरफ़ से मुकद्दर(गंदा) ज़रूर हो जाएगा। इस लिए हर एक को बाअज़्ज़त समझें और दरगुज़र से काम लें। नबी करीम स0अ0व0का इरशादे गरामी हैः जिसमें ज़र्रा बराबर भी तकब्बुर होगा वह जन्नत में दाखि़ल न होगा। इस पर एक सहाबी रज़ि0 ने अर्ज़ कियाः या रसूलुल्लाह ! मुझे अच्छा लिबास और अच्छा जूता पहनना बहुत पसंद है, क्या ये भी ग़ुरूर में शामिल है? आप स0अ0व0 ने फ़रमाया “ख़ुदा ख़ुद जमील (Most Beautiful & Magnificent) है और जमाल (Beauty) को पसंद करता है। ग़ुरूर और तकब्बुर यह है कि हक़ का इनकार किया जाए, और लोगों को हक़ीर समझा जाए।
ख़ुद्दारी का सबसे बड़ा मज़हर वक़ार यानी संजीदगी और मतानत है। इस लिए अल्लाह तबारक व तआला ने हर हाल में वक़ार को क़ायम रखने का हुक्म दिया है। नमाज़ जो सबसे अफ़ज़ल इबादत है।


लेकिन इसके बारे में भी नबी करीम स0अ0व0 ने फ़रमाया कि “जब तुम इक़ामत सुनो तो नमाज़ के लिए सुकून और वक़ार के साथ चलो जल्दी न करो।“
वक़ार एक निहायत मुकम्मल और जामे लफ़्ज़ है, जिस में बहुत सी चीज़ें शामिल हैं जैसे कि इंसानी रफ़्तार, कलाम का सलीक़ा, लिबास का ढंग, ज़ाहिरी शक्ल व सूरत का सलीक़ा यानी अपनी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं में बावक़ार रहें। नेक मोमिन के तरीक़े, आदात व ढंग और अख़लाक़ इख़्तियार करें। फक़्र व फ़ाक़ा और तंगदस्ती में भी हत्ता-ल-इम्कान (जहाँ तक मुमकिन हो सके) अपने हाथ दूसरों के आगे न फैलाएँ या सवाल न करें। रसूल करीम स0अ0व0 ने फ़रमाया और जो शख़्स मोहताज होकर अपनी अहतियाज (ज़रूरत) लोगों के सामने पेश करता है उसकी अहतियाज दूर नहीं होती है। लेकिन जो शख़्स अल्लाह के सामने पेश करता है, मुमकिन है कि अल्लाह उसको बेनियाज़ कर दे।


तकब्बुर और तवाज़ो में फ़र्क़


यहाँ पर बात अगर आदमी की दीनदारी से शुरू की जाए तो दीनदार आदमी आम ज़ुबान में उस शख़्स को समझा जाता है जो नमाज़, रोज़े का पाबंद हो, यानी उसके ज़ाहिरी आमाल शरीअत के मुताबिक़ हों और ऐसे लोग अकसर ख़ुश्क तबीयत और सख़्त मिज़ाज के होते हैं। लिहाज़ा उनके तौर-तरीक़े और बर्ताव से आम लोग समझते हैं कि शायद दीनदारी और हुस्न-ए-अख़्लाक़ दो मुतज़ाद (Opposite) चीज़ें हैं। ऐसा हरगिज़ नहीं है, सामने वाले का रौब ख़ुदादाद होना या मातहतों का अपनी ग़लतियों को ले कर उस से डरना बिलकुल अलग है।

इस से यह समझना कि हर दीनदार को सिर्फ़ बनावटी रौब जमाते रहना चाहिए, और अपने से छोटे को या अपने सामने आने वाले हर शख़्स को उसकी हर ग़लती पर पकड़कर ज़लील करना चाहिए, ताकि वह दूसरों के सामने हक़ीर साबित हो जाए, और अपनी बड़ाई लाज़िम आए, यह बिलकुल ग़लत है। हक़ूक़-उल-इबाद’’ पर जितना ज़ोर इस्लाम ने दिया है और किसी मज़हब या निज़ाम ने नहीं दिया है।


क़ुरआन व हदीस में ’’हुस्न-ए-अख़्लाक़’’ की जिस क़द्र फ़ज़ीलत और अहमियत आई है, अगर उस पर ग़ौर किया जाए तो हमारी समझ में आएगा कि हमारा दीन है ही अम्न व सलामती और ख़ुश अख़लाक़ी का दीन। इस बात को समझने के लिए नबी करीम स0अ0व0 की हयाते मुबारका में आप स0अ0व0 का अख़लाक़ देखना ज़रूरी है। नबी करीम स0अ0व0 का ताल्लुक़ क़बीला-ए-क़ुरैश से था। क़ुरैश के सरदार और मुशरिकीन निहायत मग़रूर थे, ग़रीबों और कमज़ोरों को हिक़ारत की निगाह से देखते थे। इसके बरअक्स (उल्टा) नबी करीम स0अ0व0 निहायत ही उम्दा अख़लाक़ के ओहदे पर फ़ाइज़ थे। जिस की गवाही क़ुरआन-ए-हकीम में भी मिलती है। ख़ुद आप स0अ0व0 ने भी अपने दुनिया में भेजे जाने के मक़ासिद में से एक मक़सद यह फ़रमायाः

بُعِثْتُ لِاُتَمِّمَ مَکَارِمَ الْاَخْلَاق۔ (بیہقی، رقم: ۱۰۳۱۲)

कि मैं इस लिए भेजा गया हूँ ताकि मकारिम-ए-अख़लाक़ की तकमील करूँ।

यानी अख़्लाक़ को आला दर्जात तक पहुँचा दूँ। अच्छे और बुरे अख़्लाक़ का फ़र्क़ समझने के लिए पहले हमें यह जानना चाहिए कि आखि़र बुरे अख़्लाक़ किसे कहते हैं और अच्छे अख़्लाक़ किसे कहते हैं? बुरे अख़्लाक़ और बर्ताव में ’’तकब्बुर’’ सबसे पहले आता है, और अच्छे अख़लाक़ में ’’तवाज़ो और इनकिसारी’’ अहम अख़्लाक़ी सिफ़ात (ख़ूबियों) और Qualities में आता है। क़ुरआन व हदीस में इस हवाले से सख़्त वईदें (बुराइयाँ) आई हैं। इरशादे नबी स0अ0व0 हैः

عَنْ عَبْدِاللّٰہِ قَالَ قَالَ رَسُوْلُ اللّٰہ صَلّٰی اللّٰہ عَلَیْہِ وَسَلَّمَ لَایَدْخُلُ الْجَنَّۃَ مَنْ کَانَ فِی قَلْبِہٖ مِثْقَالَ حَبَّۃٍ مِنْ خَرْدَلٍ مِنْ کِبر۔ (مسلم، رقم: ۶۵۲)

हज़रत अब्दुल्लाह रज़ि0 से मरवी है कि अल्लाह के रसूल स0अ0व0 ने इरशाद फ़रमाया कि वो शख़्स जन्नत में दाखि़ल नहीं होगा जिस के दिल में राई के किसी ज़र्रा बराबर भी कब्र होगा।

तकब्बुर यह है कि आदमी हक़ बात को क़बूल न करे और अपने आप को दूसरों से आला और बरतर समझे और सिर्फ़ अपनी बर्तरी का सिक्का जमाना चाहे। तकब्बुर किसी को भी हो सकता है। चाहे वो समाजी एतिबार से हो, माली एतिबार से हो, दीन व मज़हबी एतिबार से हो, अपनी तालीम को ले कर हो, और अपने खानदान और नसब को ले कर हो। अकसर देखने में आता है कि खानदान और नसब को ले कर दो लोगों की लड़ाई दो खानदानों, और फिर दो क़ौमों तक पहुँच जाती है। दोनों एक दूसरे को ज़ेर करने (गिराने) के लिए हर हरबा आज़माते हैं। इसी तरह दौलतमंद होना ऐब नहीं, मगर उस पर तकब्बुर करके फिरऔन बन जाना क़ाबिल-ए-मज़म्मत (बुराई) है। ’’क़ारून’’ ने भी यही कहा था। क़ुरआन-ए-हकीम में है कि अल्लाह तआला ने इरशाद फ़रमायाः

قَالَ اِنَّمَآ اُوْتِیْتُہٗ عَلٰی عِلْمٍ عِنْدِیْ۔ اَوَلَمْ یَعْلَمْ اَنَّ اللّٰہَ قَدْ اَہْلَکَ مِنْ قَبْلِہٖ مِنَ الْقُرُوْنِ مَنْ ہُوَ اَشَدُّ مِنْہُ قُوَّۃً وَّاَکْثَرُ جَمْعًا۔ (القصص:۸۷)

क़ारून’’ कहने लगा कि मुझ को तो यह सब कुछ मेरी ज़ाती हुनरमंदी से मिला है। क्या उस ने यह न जाना कि अल्लाह तआला उस से पहले गुज़श्ता उम्मतों में ऐसे-ऐसों को हलाक कर चुका है जो क़ुव्वत में उस से कहीं बढ़े हुए थे और मजमा उनका ज़्यादा था।

फिर कुछ लोग अपने ’’इल्म’’ को ले कर तकब्बुर करते हैं। उस में भी दो फ़िरक़े हैं। एक दुनियावी तालीम वाले, वो अपनी पढ़ाई पर इस लिए ग़ुरूर करते हैं कि उनके सामने वाले ने उन जैसे आला मारूफ़ व मशहूर स्कूल और कॉलेज में तालीम नहीं पाई। अल्लाह माफ़ करे कुछ आलिम हज़रात में भी इल्म और तालीम को ले कर काफ़ी तकब्बुर नज़र आता है। सामने वाले की ग़लती को वो पहाड़ बना कर पेश करते हैं, दरगुज़र से काम नहीं लेते हैं। क्यों कि वो तो अपने सामने सब को जाहिल और ग़लतियों और गुनाहों से पुर मानते हैं। क़ुरआन-ए-मजीद में ’’तकब्बुर’’ को ले कर सख़्त वईद आई है। और उस से सख़्ती से मना किया गया है। ’’सूरत-ए-लुक़मान’’ में हज़रत लुक़मान अ.स. की अपने बेटे को की जाने वाली नसीहतों का ज़िक्र है। उन नसीहतों में से एक अहम नसीहत तकब्बुर से इज्तिनाब (बचने) के मुताल्लिक़ थी, फ़रमायाः क़ुरआन हकीम में इरशादे बारी तआला है कि हज़रत लुक़मान अलै0 ने अपने बेटे से फ़रमायाः

وَلَا تُصَعِّرْ خَدَّکَ لِلنَّاسِ وَلَا تَمْشِ فِیْ الْاَرْضِ مَرَحًا۔ اِنَّ اللّٰہَ لَا یُحِبُّ کُلَّ مُخْتَالٍ فَخُوْرٍ۔ (لقمان، آیت:۸۱)

और लोगों से अपना रुख़ मत फेर, और ज़मीन पर इतराकर मत चल, बेशक अल्लाह तआला किसी तकब्बुर करने वाले, फख्र करने वाले को पसंद नहीं करते।

तकब्बुर के बरअक्स जो कैफ़ियत है, वो हर इंसान में होनी चाहिए, और वो हैः

(1) तवाज़ो

(2) इनकिसारी।

तवाज़ो हुस्न-ए-अख़लाक़ का मज़हर है।’’ और ईमान वालों के कामिल ईमान के लिए यह बुनियादी जुज़ है। ’’सूरत-ए-फ़ुरक़ान’’ में अल्लाह तआला ने अपने नेक बंदों की ख़ूबियों का ज़िक्र किया है। वहाँ उनकी पहली सिफ़त (ख़ूबी) यह बयान हुई किः

وَعِبَادُ الرَّحْمٰنِ الَّذِیْنَ یَمْشُوْنَ عَلٰی الْاَرْضِ ہَوْنًا وَّاِذَا خَاطَبَہُمُ الْجٰہِلُوْنَ قَالُوْا سَلٰمًا۔ (الفرقان:۳۶)

और रहमान के बंदे वह हैं जो ज़मीन पर आजिज़ी के साथ चलते हैं और जब उनसे जहालत वाले लोग बात करते हैं तो वह कहते हैं तुम को सलाम। (यानि तुम पर सलामती हो)।

इरशादे नबी स0अ0व0 हैः

यहाँ तक कि कोई शख़्स (किसी भी एतिबार से) दूसरे पर फ़ख़्र न करे। एक दूसरी जगह इरशादे नबवी स0अ0व0 हैः

وَعَنْ عُمَرَ قَالَ وَہُوَ عَلَی الْمِنْبَرِ یٰآیُّہَا النَّاسُ تَوَاضَعُوْا فَاِنِّیْ سَمِعْتُ رَسُوْلَ اللّٰہِ صَلّٰی اللّٰہُ عَلَیْہِ وَسَلَّمَ یَقُوْلُ مَنْ تَوَاضَعَ لِلّٰہِ رَفَعَہُ اللّٰہُ فَہُوَ فِیْ نَفْسِہٖ صَغِیْرٌ وَفِیْٓ اَعْیُنِ النَّاسِ عَظِیْمٌ وَمَنْ تَکَبَّرَ وَضَعَہُ اللّٰہُ فَہُوَ فِیْ اَعْیُنِ النَّاسِ صَغِیْرٌ وَّفِیْ نَفْسِہٖ کَبِیْرٌ حَتّٰی لَہُوَ اَہْوَنُ عَلَیْہِمْ مِّنْ کَلْبٍ اَوْ خِنْزِیْرٍ۔ (بیہقی، رقم: ۰۹۷۷)

और हज़रत उमर रज़ि. से रिवायत है कि (एक दिन) उन्होंने मिम्बर पर खड़े होकर ख़ुत्बा देते हुए फ़रमायाः “लोगो! तवाज़ो और इन्किसारी इख़्तियार करो, क्योंकि मैंने रसूल करीम स0अ0व0 को यह फ़रमाते हुए सुना है कि जो शख़्स अल्लाह तआला की रज़ामंदी और ख़ुशनूदी के लिए लोगों के साथ तवाज़ो और फ़रूतनी इख़्तियार करता है तो अल्लाह तआला उसके मर्तबा को बुलंद कर देता है, चुनाँचे वह अपनी नज़र में तो हक़ीर होता है (क्योंकि वह अपने नफ़्स को ज़िल्लत और हक़ारत की नज़र से देखता है) लेकिन लोगों की नज़र में बुलंद मर्तबा होता है (क्योंकि अल्लाह तआला तवाज़ो और फ़रूतनी की वजह से उसे लोगों की नज़रों में मुअज़्ज़ज़ बना देता है)। और जो शख़्स लोगों के साथ तकब्बुर व गुरूर करता है तो अल्लाह तआला उसके मर्तबा को गिरा देता है, चुनाँचे वह लोगों की नज़र में तो हक़ीर होता है, लेकिन अपनी नज़र में अपने को बुलंद मर्तबा समझता है यहाँ तक कि वह लोगों के नज़दीक कुत्ते या सूअर से भी बदतर हो जाता है।“

मतकब्बिर की एक पहचान यह है कि, अगर उससे कोई ग़लती सरज़द हो जाए तो मतकब्बिर हरगिज़ ग़लती तस्लीम नहीं करता, हालाँकि वह जानता है कि उसने ग़लती की है और जिससे बहस कर रहा है उसकी दलील वज़नी है, लेकिन इसके बावजूद उसकी झूटी इज़्ज़त-ए-नफ़्स उसे वह ग़लती क़ुबूल करने नहीं देती है क्योंकि वह सोचता है कि अगर मैंने सामने वाले की बात मान ली तो मेरी नाक कट जाएगी। क़ुरआन हकीम में मुनाफ़िक़ों के बारे में इरशाद फ़रमाया गया हैः

وَاِذَا قِیْلَ لَہُمْ تَعَالَوْا یَسْتَغْفِرْلَکُمْ رَسُوْلُ اللّٰہِ لَوَّوْا رُوُءْ سَہُمْ وَرَاَیْتَہُمْ یَصُدُّوْنَ وَہُمْ مُسْتَکْبِرُوْنَ۔ (المنٰفقون:۵)

और जब उनसे कहा जाता है कि रसूलुल्लाह स0अ0व0 के पास आओ, तुम्हारे लिए रसूलुल्लाह स0अ0व0 इस्तिग़फ़ार कर देंगे, तो वह अपना सर फेर लेते हैं और आप उन्हें देखेंगे कि वह इस नसीहत भरी दावत से तकब्बुर करते हुए बेरुख़ी करते हैं।

इसके बरअक्स जो शख़्स मुतवाज़े होः और अगर उससे ग़लती हो जाए तो वह उस पर इसरार नहीं करता, न उसका दिफ़ा करता है, बल्कि खुले दिल से उसे तस्लीम करता है और अपने रवैये पर नज़र-ए-सानी करके अपनी इस्लाह करता है। क्योंकि सच्चा मोमिन इब्लीस जैसा नहीं होता जैसा कि आदम अलैहिस्सलाम और इब्लीस के वाक़िये से ज़ाहिर होता है। यह क़िस्सा क़ुरआन मजीद में कई मक़ामात पर आया हैः

अल्लाह तआला ने जब मलाइका (फ़रिश्तों) को हुक्म दिया कि आदम अलै0 को सज्दा करें (याद रहे कि इब्लीस जो कि जिन्नात में से था मगर अपने ज़ुह्द व तक़्वा की वजह से मलाइका में शुमार और मशहूर हो रहा था) तो सबने हुक्म-ए-इलाही की तामील की, मगर इब्लीस ने हुक्म मानने से इनकार कर दिया। और फिर अपनी ग़लती पर नादिम होने और पछताने के बजाय अल्लाह के सामने दलील पेश की कि मैं आला हूँ, आग से बनाया गया हूँ, और आदम अलैहिस्सलाम अदना हैं, उन्हें मिट्टी से बनाया गया है, उन्हें मैं कैसे सज्दा कर सकता हूँ? यूँ तकब्बुर की वजह से उसकी सारी इबादत, ज़ुह्द व तक़्वा बर्बाद हो गया और उसे रांदा-ए-दरगाह कर दिया गया।उसके मुक़ाबले में हज़रत आदम अलै0 का तर्ज़-ए-अमल देखेंः हज़रत आदम अलै0 और अम्मां हव्वा रज़ि. से ख़ता हुई। उन्हें एक दरख़्त का फल खाने से मना किया गया था, मगर उन्होंने वह फल खा लिया। लेकिन इब्लीस के बरअक्स वह अपनी ख़ता पर सख़्त नादिम (शर्मिंदा) हुए। और उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि किस तरह अल्लाह तआला के दरबार में अपने जुर्म का एतराफ़ करें। तो अल्लाह जो कि रहमान व रहीम भी है, उसने खुद ही उन्हें चंद कलिमात सिखा दिए और उन कलिमात के साथ उन्होंने गिड़गिड़ा कर तौबा की। वह कलिमात थेः

قَالَا رَبَّنَا ظَلَمْنَا اَنْفُسَنَا وَاِنْ لَّمْ تَغْفِرْلَنَا وَتَرْحَمْنَا لَنَکُوْنَنَّ مِنَ الْخٰسِرِیْنَ۔ (الاعراف:۳۲)

दोनों कहने लगे कि ऐ हमारे रब! हमने अपना बड़ा नुक़सान किया और अगर आप हमारी मग़फ़िरत न करेंगे और हम पर रहम न करेंगे तो वाक़ई हमारा बड़ा नुक़सान हो जाएगा।

अलगरज़ः मतकब्बिर का ठिकाना जहन्नम है। क्योंकि उसके ज़रिये नाहक़ और ज़ुल्म व फ़ुजूर की पैदाइश होती है। और तवाज़ो व इन्किसारी आदमी में शफ़क़त व मोहब्बत और हक़ क़ुबूल करने का जज़्बा पैदा करती है, और यही चीज़ें रूहानी बुलंदी का बाइस बनती हैं और रूहानी तरक़्क़ी उसे कामयाबी से हमकिनार करके उसका ठिकाना जन्नत में बना देती है। इस लिए हम में से हर मुसलमान को हर वक़्त तवाज़ो और इन्किसारी को अपने लिए लाज़िम पकड़ लेना चाहिए। और उन लोगों को तो ख़ास कर अपनी तवाज़ो और इन्किसारी का ख़याल रखना है, जिनको अल्लाह तआला ने किसी ख़ास दीनी या दुनियावी सिफ़त से नवाज़ा है, ताकि वह इस सिफ़त के ज़रिये इस्लाम की ताबलीग़ का बाइस बन सकें। उनके आला किरदार और हुस्न-ए-अख़्लाक से मुतअस्सिर होकर इस्लाम फ़रोग़ व तरक़्क़ी पासकता है। और वह खुद भी आखि़रत में कामयाब हो सकते हैं।

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