
हज़रत अबू हुरैरा रज़ि0 से रिवायत है कि रसूलुल्लाह स0अ0व0 ने फरमायाः जो शख़्स ईमान के साथ और सवाब की उम्मीद से रमज़ान के रोज़े रखेगा, उसके पिछले गुनाह माफ़ कर दिए जाएँगे।
हदीस शरीफ की तशरीहः इस हदीस शरीफ से मालूम हुआ कि रमज़ान में रोज़ा रखना इन दो शर्तों (ईमान और सवाब की उम्मीद) के साथ गुनाहों की मग़फिरत का ज़रिया है। रमज़ानुल मुबारक पूरा महीना ख़ैर व बरकत का महीना है। रहमत-ए-इलाही जोश में होती है। जैसा कि हदीस शरीफ में है कि रमज़ान की पहली रात से ऐलान शुरू हो जाता हैः
“ऐ ख़ैर के तालिब आगे बढ़, और बुराई चाहने वाले रुक जा।“
एक हदीस में हैः
ख़ाक आलूद हो उस शख़्स की नाक जिस पर रमज़ान का महीना आया, फिर ख़त्म हो गया इससे पहले कि उसकी बख़्शिश की जाये।“
और इससे सख़्त वईद उस हदीस में है जो काब बिन उजरा रज़ि0 से मरवी है कि हुज़ूर स0अ0व0 ने एक मर्तबा फ़रमाया कि “मिंबर के क़रीब हो जाओ।“ हम लोग क़रीब हो गए, तो आप स0अ0व0 मिंबर पर चढ़े। जैसे ही पहली सीढ़ी पर क़दम रखा, फ़रमायाः “आमीन!“ फिर दूसरी सीढ़ी पर क़दम रखा तो फ़रमायाः “आमीन!“ इसी तरह तीसरे सीढ़ी पर क़दम रखते हुए फ़रमायाः “आमीन!“ हमने अर्ज़ कियाः “या रसूलुल्लाह स0अ0व0! आज यह नई बात देखी गई?“ फ़रमायाः “हाँ, हुआ यह कि इस वक़्त जिब्रईल अमीन अ0 मेरे सामने आए थे। जब मैंने पहले दर्जा पर क़दम रखा तो उन्होंने कहाः ’हलाक हो वह शख़्स जिसने रमज़ानुल मुबारक का महीना पाया, फिर भी
उसकी मग़फिरत न हुई।’ मैंने कहाः ’आमीन!’ “फिर जब मैं दूसरे दर्जा पर चढ़ा, तो जिब्रईल अमीन ने कहाः ’हलाक हो वह शख़्स जिसके सामने मेरा ज़िक्र हो और वह दरूद न भेजे।’ मैंने कहाः ’आमीन!’ जब मैं तीसरे दर्जा पर पहुँचा, तो जिब्रईल अमीन ने कहाः ’हलाक हो वह शख़्स जिसके वालिदैन या उनमें से कोई एक बुढ़ापे को पहुँचे और वह उनकी खि़दमत करके जन्नत का मुस्तहिक़ न बने।’ मैंने कहाः ’आमीन!’ इस हदीस शरीफ में हज़रत जिब्रईल ने तीन बद्दुआएँ दी हैं और हुज़ूर स0अ0व0 ने तीनों पर “आमीन“ फ़रमाई। पहले तो हज़रत जिब्रईल जैसे मुक़र्रब फ़रिश्ते की बद्दुआ ही क्या कम थी, और फिर हुज़ूर की “आमीन“ ने उसे और भी सख़्त बना दिया। अल्लाह तआला ही अपने फ़ज़ल से हम लोगों को इन तीनों चीज़ों से बचने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए और बुराइयों से महफूज़ रखे। आमीन! (बैहक़ी बहवाला फ़ज़ाएल-ए-अ’माल, जिल्द अव्वल)
रोज़े की हिकमतें और फ़वाइदः अल्लाह तआला ने जो इबादतें बंदों के लिए मुशरू और मुतअय्यिन फ़रमाई हैं, उनमें बड़ी हिकमतें हैं जिनका नफ़ा बंदों को दुनिया व आखि़रत दोनों में मिलता है। रोज़ा उन ही इबादतों में से है, जिसमें अल्लाह तआला ने बेशुमार हिकमतें और फ़वाइद रखे हैं।
(1) तक़वा का हुसूलः रोज़ा परहेज़गारी की ताक़त के हासिल करने का बहुत बड़ा सबब है और वसीला है। रोज़ा के इस नफ़ा और हिकमत को क़ुरआन करीम में यूँ बयान किया गया हैः
ऐ ईमान वालों! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किए गए, जैसे कि उन लोगों पर फ़र्ज़ किए गए जो तुमसे पहले थे, शायद कि तुम मुत्तक़ी बन जाओ।
तक़वा नाम है “इमतिसाल-ए-अवामिर और इज्तिनाब-ए-नवाहि“ का, यानी जिन कामों के करने का अल्लाह तआला ने हुक्म दिया है, उन्हें बज़ा लाना और जिन चीज़ों से रोका है, उनसे परहेज़ करना। यही शरीअत का मक़सद और अहकाम-ए-इस्लाम का ख़ुलासा है। तक़वा एक ऐसा क़ीमती और बेहतरीन तौशा है, जिसे आदमी अपने परवरदिगार से मुलाक़ात के लिए ज़ख़ीरा बनाता है। अल्लाह तआला का इरशाद हैः
रास्ते का तोशा ले लिया करो और बेहतरीन रास्ते का तोशा तक़वा है। और मुझसे डरते रहो, ऐ अक़्लमंदों!
तक़वा ही अल्लाह के नज़दीक मक़बूलियत महबूबियत और फ़ज़ीलत व बर्तरी का मयार है। हुज़ूर स0अ0व0 ने हज़रत अबूज़र ग़िफ़ारी रज़ि0 से फ़रमायाः
“
बेशक तुमको अपनी ज़ात से न किसी गोरे के मुक़ाबले में कोई फ़ज़ीलत हासिल है और न किसी काले के मुक़ाबले में, अलबत्ता तक़वा के ज़रिए तुम किसी के मुक़ाबले में अफ़ज़ल और बड़े हो सकते हो।“
अल्लाह तआला का इरशाद हैः
“अल्लाह के नज़दीक तुम सब में बड़ा शरीफ़ वही है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार हो।“
(2) नेमतों पर अल्लाह का शुक्र और ग़ुरबा के साथ हमदर्दीः जब मालदार और साहिब-ए-सरवत इंसान रोज़ा रखता है और उसे भूख-प्यास की शिद्दत और तकलीफ़ का एहसास होता है, तो वह अल्लाह तआला की उन बेशुमार नेमतों की क़दर व मन्ज़िलत और एहमियत को पहचानता है जो अल्लाह तआला ने उसे अता फ़रमाई हैं और जिनसे बहुत से लोग महरूम हैं। वह इन नेमतों पर अल्लाह का शुक्र अदा करता है। साथ ही, ग़ुरबा, मसाकीन और बदहाल लोगों के हक़ में उसके दिल में हमदर्दी, ग़म-ख़्वारी और ग़म-कुसारी का जज़्बा पैदा होता है। वह उन पर सदक़ा-ख़ैरात करके उनकी ज़रूरतों को पूरा करता है। रोज़े की इस हिकमत को क़ुरआन करीम में यूँ बयान किया गया हैः
सो तुम में से जो कोई इस महीने को पाए, तो ज़रूरी है कि वह इस महीने का रोज़ा रखे। और जो कोई बीमार हो या सफ़र में हो, तो उसे दूसरे दिनों में इसकी गिनती पूरी करनी होगी।“(रोज़ा रखना ज़रूरी है) अल्लाह तआला तुम्हारे हक़ में सहूलत चाहता
है और तुम्हारे हक़ में दुश्वारी नहीं चाहता और यह कि शुमार की तकमील कर लिया करो और यह कि तुम अल्लाह की बड़ाई बयान किया करो इस पर कि तुम्हें राह बता दी, शायद कि तुम शुक्र गुज़ार बन जाओ।
(3) कसर-ए-शहवतः सही हदीस से साबित है, हुज़ूर स0अ0व0 ने फ़रमायाः
बेशक शैतान इंसान के ख़ून की रगों में दौड़ता है।
यह बात मालूम है कि भूख व प्यास से रगें तंग हो जाती हैं और ख़ून का दौरान सुस्त पड़ जाता है। पस, रगों में और इंसान के बदन में शैतान का दौरान भी तंग हो जाता है और शैतान के वसाविस कमज़ोर हो जाते हैं। रोज़े के इस दुश्वार अमल और भूख व प्यास बर्दाश्त करने की इस मशक़्क़त व रियाज़त से क़ुव्वत-ए-शहवानी और क़ुव्वत-ए-ग़ज़बी, जो शर व फ़साद की जड़ व बुनियाद है, उसकी तेज़ी मंद पड़ जाती है। और शहवानी जज़्बात जो इंसान को सीधे रास्ते से हटाकर हलाकत व तबाही की राह पर डाल देते हैं, रोज़े से उनका ज़ोर टूट जाता है। इसीलिए हुज़ूर स0अ0व0 ने एक हदीस शरीफ में बयान फ़रमाया हैः
ऐ नौजवानों की जमाअत! तुम में से जो शख़्स मुजामअत की इस्तिताअत रखता हो, उसे चाहिए कि वह निकाह कर ले, क्योंकि निकाह करना नज़र को बहुत छुपाता है और शर्मगाह को बहुत महफ़ूज़ रखता है। और जो शख़्स मुजामअत की इस्तिताअत न रखता हो, उसे चाहिए कि वह रोज़े रखे, क्योंकि रोज़ा शहवत को तोड़ता है।
इसके अलावा, रोज़े से मोमिन बंदे के अंदर कसरे नफ़्सी, तवाज़ो’ और ए’तिदाल पसंदी जैसी सिफ़ात-ए-महमूदा पैदा होती हैं। क़ल्ब ख़शियत-ए-इलाही, ज़िक्रुल्लाह और फ़िक्र-ए-आखि़रत के लिए ख़ाली होता है। और उलमा फ़रमाते हैं कि रोज़े को अख़लाक़ की सफ़ाई व सतहराई और तजि़्कया में बहुत बड़ा असर और दख़ल है। दुआ है कि अल्लाह तआला हम सबको ईमान व यक़ीन और सवाब की उम्मीद के साथ रोज़ा रखने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए और हमारे रखे हुए रोज़ों को क़बूलियत से नवाज़े। आमीन या रब्बल आलमीन!!!


