रसूलुल्लाह स0अ0व0 का दस्तरख़्वान और हमारा रमज़ानुल-मुबारक

रसूलुल्लाह स0अ0व0 का दस्तरख़्वान और हमारा रमज़ानुल-मुबारक

दीगर इबादात की तरह रोज़े का अहम तरीन मक़सद भी तक़वा, यानी परहेज़गारी का हुसूल है। गोया रोज़े का मक़सद सिर्फ़ खुद को खाने-पीने से रोकना ही नहीं, बल्कि सब्र व शुक्र और क़नाअत है, यानी रोज़े का हक़ीक़ी मक़सद बहुत अरफ़ा व आला है। रोज़ा वह इबादत है, जिसका ताल्लुक़ ख़ुदा और बंदे से बराहे-रास्त है, क्यों कि इंसान ख़ुदा की ख़ुशनूदी की ख़ातिर तन्हाई में भी खाने-पीने से गुरेज़ करता है। वह झूठ, ग़ीबत, बहुतान, चुग़ली, तोहमत, गाली-ग़लौच, लान-तान, रियाकारी, धोखा, फ़रेब और फितने-फसाद से भी दूर रहने की कोशिश करता है। इस हवाले से इरशाद-ए-रब्बानी हैः “रोज़ा मेरे लिए है और मैं ख़ुद इसकी जज़ा दूँगा।“

             रमज़ानुल-मुबारक नफ़्स को क़ाबू में रखने और खाने-पीने की ख़्वाहिश को रोकने का महीना है। ख़्वातीन इस महीने में आम दिनों से ज़्यादा मस्रूफ़ हो जाती हैं, इस लिए कि सहरी और इफ़्तारी तैयार करना उन्हीं की ज़िम्मेदारी है। रमज़ान में आम तौर पर सहरी में रोग़नी ग़िज़ाएँ, जबकि इफ़्तार के वक़्त फलों की चाट, पकोड़े, समोसे, खजूर, चिकन रोल, छोले, दही भल्ले और मशरूबात वग़ैरा से मेदे की तवाज़ो की जाती है, जिसके बाद अकसर बदहज़मी की शिकायत हो जाती है। यहाँ यह बात याद रखने की है कि इस्लाम एतेदाल और तवाज़ुन का दीन है और माह-ए-सि़याम में इन पर अमल किया जाता है। ख़्वातीन ख़ूब जानती हैं कि रमज़ानुल-मुबारक बहुत बाबरकत महीना है, मगर अकसर लोग इस माह में हाज़मे के निज़ाम की तक़ालीफ़ में मुब्तिला हो जाते हैं। इसकी बुनियादी वजह मामूलात-ए-ज़िंदगी में तबदीली है।
अगरचे यह तबदीली बे-हद मुसबत होती है, मगर हम मन्फ़ी तर्ज़-ए-ज़िंदगी के इस क़दर आदी हो चुके हैं कि हमें मुसबत तब्दीलियाँ समझ में नहीं आतीं। निहायत आसान और सादा सी बात है कि अगर ग़िज़ा को ज़्यादा चटपटा न बनाया जाए, यानी ख़ानों में ज़्यादा नमक, मिर्च-मसाले और चिकनाई शामिल करने से गुरेज़ किया जाए, तो फिर न सीने में जलन होगी, न मेदे में तेज़ाबियत और न हाज़मे का निज़ाम मुतास्सिर होगा। रमज़ान में कोशिश करनी चाहिए कि दोनों औक़ात, यानी सहरी और इफ़्तार में तमाम ज़रूरी अजज़ा वाली ग़िज़ाएँ शामिल रखें। यह ज़रूरी अजज़ा सिर्फ़ मुतवाज़िन ग़िज़ा से ही हासिल
हो सकते हैं। गोश्त, दूध, दही, सब्ज़ियाँ, फल और खजूर खाएँ, मगर एतेदाल के साथ। आप यक़ीनन रोज़े के जिस्मानी और रुहानी समरात हासिल करने में कामयाब होंगे।

                     जिस तरह रहमतुल-लिल-आलमीन स0अ0व0 सबसे मुम्ताज़ और बे-मिसाल थे, उसी तरह आप स0अ0व0 का दस्तरख़्वान भी सबसे मुनफ़रिद और अलग था। आप स0अ0व0 का दस्तरख़्वान और खाने की चीज़ें देख कर ही अंदाज़ा हो जाता कि इंसान की तख़्लीक़ का मक़सद इस दुनिया में लज़्ज़त-ए-काम-ओ-दहन नहीं, बल्कि इताअत व इबादत के लिए तवानाई का ज़रिया है। आप स0अ0व0 का दस्तरख़्वान कोई मेज़ नहीं, बल्कि एक आम सा चमड़े का टुकड़ा या फिर टाट होता, जिसे ज़मीन पर बिछा दिया जाता और जो भी खाने के लिए होता, उस पर रख दिया जाता। बरतन भी ज़्यादा नहीं, एक या दो तश्तरियों पर मुश्तमिल होते थे। पानी पीने के लिए एक ही बड़ा प्याला होता। अगर खाने वाले ज़्यादा लोग होते तो दस-दस की टोली आकर खाया करती और सब दाएँ तरफ़ से शुरू करते। जबकि आप स0अ0व0 ने कभी भी टेक लगा कर खाना नहीं खाया। इसका ज़िक्र सही बुख़ारी, किताब-उल-अतइमा में भी है। अब ज़िक्र हो जाए उन ख़ानों का, जो आप स0अ0व0 खाते थे।

       स़रीदः आप स0अ0व0 स़रीद को बहुत शौक़ से तनाउल फ़रमाते थे। अबू हाज़िम ने सहल बिन सअद रज़ि0 से सवाल किया कि क्या आप स0अ0व0 ने गेंहूँ के मैदे की रोटी खाई? तो आप रज़ि0 ने जवाब दियाः नहीं, देखा भी नहीं। फिर पूछाः क्या उस वक़्त छलनियाँ होती थीं? जवाब मिलाः नहीं। पूछा गया कि वह जौ की रोटी कैसे खाते थे? जवाब मिलाः आटे को फूँक मारते, जो छिलके उड़ जाते, ठीक, तो बाक़ी जैसे होता, उसे इस्तेमाल में ले आते।
         सिरकाः हज़रत जाबिर रज़ि0 ने बयान किया कि हज़ूर स0अ0व0 ने एक रोज़ मेरा हाथ पकड़ा और अपने घर ले गए। घर वालों ने परदा कर रखा था। आप स0अ0व0 ने पूछाः खाने को कुछ है? तो कहा गयाः रोटी के चंद टुकड़े हैं। हज़ूर स0अ0व0 ने फ़रमायाः क्या सालन है? जवाब मिलाः नहीं, अलबत्ता सिरका है। हज़ूर स0अ0व0 ने ख़ुश होकर फ़रमायाः यही ले आओ! सिरका तो बेहतरीन सालन है।
        ज़ैतूनः नबी करीम स0अ0व0 को ज़ैतून भी बहुत पसंद था। फ़रमाया करतेः ज़ैतून खाओ, इसमें बरकत है। इसका सालन बनाओ और इसका तेल इस्तेमाल करो, क्यों कि यह एक बाबरकत दरख़्त से निकलता है।
        कददूः हज़रत अनस रज़ि0 से रिवायत है कि एक ग़ुलाम ने नबी पाक स0अ0व0 की दावत की और आप स0अ0व0 स़रीद के प्याले से कद्दू के टुकड़े ढूँढ-ढूँढ कर खाने लगे। आप स0अ0व0 को कद्दू बहुत पसंद था।

        खीराः हज़रत अब्दुल्लाह बिन जअफ़र रजि0 रिवायत करते हैं कि मैंने हज़ूर स0अ0व0 को देखा कि वह खजूर के साथ खीरे खा रहे थे।
        च्कुंदरः हज़रत उम्मे मुनज़िर रजि0 रिवायत करती हैं कि एक मरतबा मेरे घर रसूलुल्लाह स0अ0व0 तशरीफ़ लाए। मैंने चकुंदर का सालन और जौ की रोटी पकाई। इस पर नबी करीम स0अ0व0 ने हज़रत अली रज़ि0, जो आपके हमराह थे, फ़रमायाः “तुम इसमें से खाओ, यह बहुत मुफ़ीद है।“
  मेथीः नबी करीम स0अ0व0 की पसंदीदा सब्ज़ियों में से एक है। फ़रमायाः “मेरी उम्मत अगर मेथी के फ़वाइद जान ले, तो वह इसे सोने के हम-वज़्न खरीदने से भी परहेज़ न करे।
       तरबूज़ः हज़रत मुहम्मद स0अ0व0 ताज़ा पकी हुई खजूरों के साथ तरबूज़ खाया करते थे।
       इंजीरः इंजीर आप स0अ0व0 का पसंदीदा फल था। फ़रमायाः “अगर कोई कहे कि कोई फल जन्नत से ज़मीन पर आ सकता है, तो मैं कहूँगा कि यही वह फल है, क्यों कि यह बिला शुब्हा जन्नत का मेवा है, जिससे बवासीर और जोड़ो का दर्द ख़त्म हो जाता है।“
       अनारः हज़रत अली रज़ि0 बयान करते हैं कि रसूल स0अ0व0 ने फ़रमायाः अनार खाओ, इसके अंदरूनी छिलके समेत, यह मेदे को हयात अता करता है। और फ़रमाते हैंः जिसने अनार खाया, अल्लाह उसके दिल को रौशन करेगा। हज़ूर स0अ0व0 को मीठे खाने भी पसंद थे जिनमें खजूर, सत्तू और मक्खन का मलीदा शामिल हैं।
       शहदः अरब में शहद एक आम ग़िज़ा के तौर पर इस्तेमाल होता था। हज़रत आइशा सिद्दीक़ा रज़ि0 से रिवायत है कि आप स0अ0व0 को मीठा और शहद पसंद था। खुजूर का मीठाः नबी करीम स0अ0व0   रमज़ान के बाद ईद-उल-फ़ित्र पर ईदगाह जाने से पहले खजूरें खाते, जिनकी तादाद ताक़ होती।
       सत्तूः सत्तू अहल-ए-अरब की मजमूई ग़िज़ा थी। चुनांचे नबूवत से पहले जब हज़ूर स0अ0व0 ग़ारे-हिरा में तशरीफ़ ले जाते, तो साथ सत्तू ही ले जाया करते।
       ज़मज़मः ज़मज़म हज़ूर स0अ0व0 के पसंदीदा मशरूबात में से एक था। आप स0अ0व0 ज़मज़म खड़े हो कर पिया करते।
भीगे हुए फल का पानीः रात को अंगूर या खजूर में से कोई चीज़ भिगो दी जाती, और सुबह उसे आप स0अ0व0 पी लिया करते।
       दूधः हज़ूर स0अ0व0 को दूध बहुत ही पसंद था। बहुत सारी अहादीस में भी आप स0अ0व0 के दूध पीने का ख़ुसूसी ज़िक्र मिलता है।

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