निज़ामे हाज़मा की सोज़िश | Conspiracy of Nizame Hazma | Inflammatory bowel Disease

हमारा निज़ामे हाज़मा, मुँह से शुरू होकर हलक़, खाने की नाली, पेट, बड़ी और छोटी आंत से मक़अद पर जाकर ख़त्म होता है। हैं। जबकि मददगार अज़ा जैसे लबलबा, मुँह में मौजूद ग़द्दूद, जिगर और पित्त वग़ैरा मुख़्तलिफ़ औक़ात पर अपने-अपने तरीक़ों से इसमें मुख़्तलिफ़ रुतूबतें दाखि़ल करते हैं। जिसका मक़सद यही होता है कि जो कुछ हमने खाया है वो ना सिर्फ़ हज़्म हो जाए बल्कि उससे मतलूबा नताइज भी बरामद हों।


अब अगर निज़ाम-ए-हाज़मा से मुनसलिक बीमारियों की बात की जाए तो उनकी तादाद लगभग 600 के क़रीब है। इनमें से चंद एक ऐसी हैं जो हमारे मुँह यानी ज़हन से लेकर मख़राज़ या मक़अद तक फैलाव रखती हैं। इनमें से एक बीमारी सूज़िश-ए-निज़ाम-ए-हाज़मा भी है। निज़ाम-ए-हाज़मा यानी आंतों में जब भी सूज़िश वाक़ेह होगी तो आम तौर पर दस्त, पेचिश, बुख़ार, वज़न कम होने और पेट के दर्द वग़ैरा जैसी अलामात ज़ाहिर होंगी। वाज़ेह रहे कि छोटी आंत का दर्द ज़्यादातर पेट के दरमियानी हिस्सों में, जबकि बड़ी आंत की सूज़िश का दर्द दरमियान के बजाय अताराफ़ से उठता है। जबकि इनमें से एक बीमारी जो निज़ाम-ए-हाज़मा के किसी भी हिस्से को मुतास्सिर कर सकती है उसे क्रोन कहते हैं। इस मर्ज़ में आम तौर पर पेट का दर्द, दस्त, पाख़ाने में ख़ून, बुख़ार, वज़न में कमी, जोड़ों में दर्द, थकावट के एहसास के साथ-साथ जिल्द के मुख़्तलिफ़ अमराज़ और कभी-कभी क़ब्ज़ होना, बुनियादी अलामात तसव्वुर की जाती हैं।

याद रहे कि 80 से ज़ायद बीमारियाँ पेट के दर्द के बाइस लाहक होती हैं, लेकिन उनमें बहुत कम तादाद ऐसी बीमारियों की है जो दायमी शक्ल इख़्तियार कर लेती हैं। यानी उनका दौरेनिया कई माह पर मुश्तमिल होता है, जिन्हें हम दायमी कहते हैं। जबकि पाख़ाने में ख़ून की आमेज़िश के लिहाज़ से भी बीमारियों की फेहरिस्त ख़ासी तवील है। इस लिहाज़ से कुछ बीमारियाँ ऐसी भी हैं जो हमारे निज़ाम-ए-हाज़मा के चंद हिस्सों ही को मुतास्सिर करती हैं। इनमें आईबीडी यानी बड़ी आंत की सूज़िश भी शामिल है। ये बीमारी क्रोन से मशाबहत रखती है लेकिन ये सिर्फ़ बड़ी आंत तक ही महदूद रहती है। इब्तिदा में इन दोनों बीमारियों की अलामात यक्साँ देखी गईं। लेकिन जब मजीद तफ्तीश हुई तो साबित हुआ कि इनकी अलामात एक-दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं।


ये मर्ज़ आम तौर पर नौजवानों में ज़्यादा पाया जाता है। जिनकी उम्र 15 से 30 साल के दरमियान होती है। अगर मर्ज़ बचपन ही में लाहक हो जाए तो बच्चे का क़द नहीं बढ़ता और छोटे क़द ही का रह जाता है। पेट के अलावा ये बीमारी जिस्म के मुख़्तलिफ़ अज़ा पर भी असर अंदाज़ होती है। जैसे कि जिस्म और आँखों में ख़ारिश, अगर ये मरीज़ धूप में निकलें तो रौशनी से उनकी आँखें चुँधिया जाती हैं। और ये आँखों को हाथों से छुपाते रहते हैं। यानी रोशनी बर्दाश्त नहीं कर पाते। इन मरीजों में मुख़्तलिफ़ इक़साम की पेचीदगियां भी पैदा हो जाती हैं, जिनमें पित्ते की पथरी बहुत आम है। इसके अलावा गठिया भी इन में कदरे ज्यादा होता है। जो जोड़ों के अलावा कमर की हड्डी को बेहद मुतास्सिर करता है। जिसमें सख़्ती आने की वजह से हरकत महदूद हो जाती है। अगर ऐसे मरीज चल रहे हों, तो यूं लगता है कि जैसे उनकी कमर में किसी क़िस्म की कोई हरकत ही नहीं है। इनमें जिल्द के ज़ख़्म भी बहुत ही नुमायां और बड़े तकलीफ़देह होते हैं। देखने में इंतिहाई बदनुमा नज़र आते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे ज़ख्म बनने के बाद इनमें सड़ांध पैदा हो गई हो। क्रोन बीमारी में सिर्फ़ मुंह ही नहीं बल्कि ज़ुबान पर भी छाले पड़ जाते हैं। नीज़ निज़ाम-ए-हाज़मा के अतराफ़ के अज़ा भी मुतास्सिर हो जाते हैं। जिनमें लुबलुबे की सूजन और ख़ून का जमना शामिल हैं।


अगरचे ता हाल मुकम्मल तौर पर इस बीमारी की वजह तो दरियाफ़्त नहीं हो सकी। ताहम अब तक जो तहकीक की गई है उसकी रो से तंबाकू नोशी, अतराफ़ में मौजूद मुख्तलिफ़ इक़साम की कसाफतें और खानदानी बीमारियां अहम वजहों में शामिल हैं। जबकि जिस्म में मौजूद दिफ़ाई निज़ाम में खलल इस बीमारी के वारिद होने का सबसे अहम सबब माना जाता है। आम तौर पर यूं अज़्म एक बोझ से हम को मिली निजात जो ज़ेहन में ग़ुबार था काग़ज़ पे आ गया। शमशाद अली अज़्म मरीज जब दस्त, पेट दर्द, वज़न कम होने, पेट में ऐंठन, हल्के बुखार, पेट में गुमड़ नुमा उभार, पाखाने की जगह के क़रीब सुराख, रात को दस्त आने, कब्ज़ की शिकायतें लेकर डॉक्टर के पास जाता है तो तश्ख़ीस के लिए मुख्तलिफ़ इक़साम के एक्सरे टेस्ट मसलन कोलोस्कोपी, वीडियो कैप्सूल एंडोस्कोपी, बायोप्सी, सीटी स्कैन और ख़ून के टेस्ट तजवीज़ किए जाते हैं। चूंकि क्रोन की बीमारी मुतअद्दिद बीमारियों से मशाबहत रखती है इस लिए अगर डॉक्टर माहिर न हो तो अमूमन मरीज एक डॉक्टर से दूसरे, फिर तीसरे और बिला आखि़र कन्सल्टेंट तक पहुंचते हैं। तब तक मजीद पेचीदगियां पैदा होने का ख़तरा बढ़ जाता है। जो बीमारियां, मज़कूरा बीमारी से मशाबहत रखती हैं उनमें अपेंडिक्स, आंतों की सूजन, मुख्तलिफ़ अदविया के ज़िम्मी असरात, ख़वातीन में कुल्हों की सूजन, आंतों के गुमड़, मुख्तलिफ़ इक़साम के जरासीम और वायरस के आंतों पर हमले और कैंसर वगैरा शामिल हैं।


अगर इब्तिदा में इस बीमारी की सही वजह मालूम न हो पाए तो बीमारी पर क़ाबू पाने के लिए मुख्तलिफ़ अक़साम की अदविया तजवीज़ की जाती हैं, जिनमें पेट का दर्द ख़त्म करने वाली अदविया सरफ़हरिस्त हैं।


मगर जब इस बीमारी में पीप की गांठ बन जाए तो ला महाला एंटीबायोटिक के बिना इसे क़ाबू नहीं किया जा सकता है। फिर कुछ ऐसी अदविया जो दिफ़ाई निज़ाम में ख़राबी के बाइस इस्तेमाल करवाई जाती हैं, वो बदक़िस्मती से हमारे मुल्क में आसानी से दस्तयाब नहीं हैं और कदरे महंगी भी हैं। लिहाज़ा क्रोन के मरीजों को चाहिए कि वो अपने वज़न और गिज़ाइयत का ख़ास ख़याल रखें।


क्योंकि ऐसे बहुत से विटामिन्स और फैट्स मौजूद हैं जो जज़्ब नहीं हो पाते और जिस्म में इनकी कमी वाक़े हो जाती है लिहाज़ा इस ज़िम्न में मुआलिज से मशविरा लाज़मी करें।


वाज़ेह रहे कि एक माहिर मुअल्लिज़ मरीज की ज़ेहनी कैफ़ियत को मद्दे नज़र रखते हुए इलाज करता है और चूंकि इस मर्ज़ में वक्फ़े-वक्फ़े से अलामात ज़ाहिर होती हैं और इसी लिए डॉक्टर मरीज़ को यह बात भी ज़हन नशीं करवाता है कि इस बीमारी ज़हन में हावी न होने दिया जाए।


जदीद अदविया में एक कीड़े के अंडे भी इन मरीजों को ब तौर अदविया दिए जाते हैं। जिनके असरात अब तक कामयाब हैं। बिला शुबा इस बीमारी में सर्जरी का अमल दाखिल भी कुछ ज़्यादा ही है। मसलन आंतों के मुतास्सिरा हिस्सों को काट कर निकाल दिया जाता है। बहर हाल, क्रोन के मरीजों को चाहिए कि वो हमेशा निज़ाम-ए-हाज़मा के माहिर डॉक्टर्ज़ ही के ज़ेरे इलाज रहें। नीज़ हर तीन से छह माह में डॉक्टर के पास मुआइने के लिए लाज़मी जाएं। जिगर के फेअल का एलएफटी- मुतवातिर करवाते रहें।


गाहे ब गाहे विटामिन्स का लेवल भी लाज़मी चेक करवाएं। चूंकि ये मरीज चरबी, तेल, घी वगैरह आसानी से जज़्ब नहीं कर पाते, लिहाज़ा इन अशिया का इस्तेमाल कदरे कम करें। जब कि दूसरी जानिब अगर इनकी आंतों में रुकावट पैदा हो चुकी है तो फिर रेशेदार गिज़ा का इस्तेमाल भी कम करें और किसी भी नाखुशगवार अलामात की सूरत में अपने मुआलिज़ से रुजू करें।

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