
रमज़ान के आने से पहले ही सारे मुसलमान इसके ज़िक्र व फ़िक्र में मशगूल हो जाते हैं। कहीं जिस्मानी तैयारी और कहीं रूहानी तैयारी शुरू हो जाती है, बहरहाल तैयारी दोनों ही ज़रूरी हैं। जिस्मानी में सेहत का दर्जा सबसे अहम है; क्योंकि सेहत होगी तभी इंसान रोज़े रख सकेगा। और रूहानी सेहत भी ज़रूरी है; क्योंकि इबादत में इख़लास रूहानी बीमारों को मयस्सर नहीं आता है। दरअस्ल रोज़ा कोई मामूली काम नहीं है, यह इस्लाम का एक अहम रुक्न है। नबी करीम स0अ0व0 का फ़रमान हैः
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ि0 से रिवायत है कि रसूलुल्लाह स0अ0व0 ने फ़रमायाः इस्लाम की बुनियाद पाँच चीज़ों पर क़ायम की गई है। अव्वल गवाही देना कि अल्लाह के सिवा कोई मअबूद नहीं और बेशक मुहम्मद स0अ0व0 अल्लाह के सच्चे रसूल हैं, और नमाज़ क़ायम करना, और ज़कात अदा करना, और हज करना, और रमज़ान के रोज़े रखना।
अल्लाह तआला हम सब को कलिमा ला इलाहा इल्लल्लाह पर क़ायम व दायम रखे और रमज़ान जिस मक़सद से अल्लाह तआला ने हमारे लिए फ़र्ज़ किया है, वह मक़सद हमारी ज़िंदगी के हर पहलू में उतरे। इसके लिए रमज़ानुल मुबारक के मसाइल, इसके अहकाम, इसकी आयात और इसकी हिकमतों को समझना निहायत ज़रूरी है। रमज़ान ईमान व एहतेसाब के साथ गुज़रे, बार-बार हमें इसकी तलक़ीन की जाती है, ताकि हम बा-अमल मुसलमान लिखे जा सकें। रमज़ान को हक़ीक़त में हमारे ईमान को तरो ताज़ा (त्मतिमेी) करने की हिकमत से अल्लाह तआला ने हमारी ज़िंदगी में उतारा है। हम साल भर में मैले, गंदे, कसीफ़ हो जाते हैं। दुनिया से फ़ुर्सत नहीं मिलती। हर वक़्त अपनी दुनियावी मसरूफ़ियात में मगन रहने वाले मुसलमान को अल्लाह तआला रमज़ानुल मुबारक का तोहफ़ा देकर फिर से अपनी ईमानी ज़िंदगी को दोबारा शुरू (त्मेजंतज) करने का मौक़ा देता है। आपने देखा होगा कि कंप्यूटर में वक़्तन-फ़वक़्तन उसका सोफ़्टवेयर अपडेट होता रहता है और एक बार जब आप उसे न्चकंजम करते हैं तो फिर कंप्यूटर में त्मेजंतज की कमांड आती है, ताकि सब कुछ फिर नए सिरे से फ्ऱेश हो जाए। बिल्कुल इसी तरह रमज़ान और इसके रोज़े इबादात हैं, मगर यह फ़ैज़ और इस मक़सद में कामयाबी उसे ही मिलेगी जिसने इसे ईमानन व एहतेसाबन गुज़ारा होगा। इर्शादे-नबवी स0अ0व0 हैः
हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु नक़ल करते हैं कि नबी करीम स0अ0व0 ने फ़रमायाः “जिसने रमज़ान के रोज़े ईमान और ख़ालिस नीयत के साथ रखे, उसके पिछले गुनाह बख़्श दिए गए।“
इस हदीस से हमें यह पता चलता है कि रमज़ान के रोज़े सिर्फ़ एक रस्म व आदत का नाम नहीं है, जैसे कि हम मुसलमान बहुत से काम उसके वक़्त आने पर कर लेते हैं। इसमें अल्लाह की रज़ा की नीयत सबसे अहम है, तभी हमारा ईमान मुकम्मल होगा और अल्लाह तआला अजर देगा। यह मुक़द्दस महीना इबादत, तक़वा और रूहानी तजदीद का बेहतरीन मौक़ा फ़राहम करता है। भूखा-प्यासा रहना इसका मक़सद नहीं है, यानी यह एक जिस्मानी मश्क़ का नाम नहीं है, बल्कि एक रूहानी इबादत है जिसमें सही नीयत और इख़लास बहुत ज़रूरी है। ईमान के साथ रोज़ा रखने का मतलब यह है कि बंदा अल्लाह तआला के अहकामात पर मुकम्मल यक़ीन और इख़लास के साथ रोज़ा रखे। उसे यह यक़ीन हो कि रोज़ा अल्लाह का हुक्म है और वही इसका अजर अता करने वाला है।
और एहतेसाब का मतलब यह है कि बंदा सिर्फ़ अल्लाह की रज़ा के लिए रोज़ा रखे, न कि लोगों को दिखाने के लिए या महज़ आदतन। इसमें अपनी नीयत का जायज़ा लेना ज़रूरी है कि क्या हम वाक़ई अल्लाह के लिए यह इबादत करते हैं। यह हमारा ।जजपजनकम (बर्ताव) बताएगा। इसकी मिसाल उन दो मेहमानों की तरह हैः
एक यह कि जिसके आने से हम बहुत ख़ुश होते हैं, पूरे ख़ुलूस से इस्तिक़बाल की तैयारी करते हैं। यानी रमज़ान के चाँद को पुर-जौश तरीक़े से देखते हैं और इसकी तमाम सुन्नतें अदा करते हैं। और उसी रात से हर काम और अपना हर क़दम सुन्नते-रसूल के हिसाब से आगे बढ़ाते हैं।
दूसरा यह कि सब्र किया कि भई यह मेहमान आ रहा है। अब इसको झेलना तो है ही। यानी रोज़ा रखेंगे, मगर बड़ी बेचारगी और बोझ समझकर। हर गुज़रते दिन के साथ यह गिनती लगाते हुए कि अब इतने रह गए। तरावीह पढ़ी, मगर ख़ुशू व ख़ुज़ू के साथ नहीं। यह सब बंदा अपनी कैफ़ियात के साथ ही समझ सकता है कि कितना म्गबपजमउमदज (जोश व जज़्बा) है कि मैं क़ुरआन से ऐसा तअल्लुक़ बनाऊँ कि अल्लाह तबारक व तआला राज़ी हो जाए। और पिछले तमाम गुनाह माफ़ कर दिए जाएँ, जो कि एक बहुत बड़ी नेमत है। याद रखो! यह मेहमान भी आपके लिए तौहफ़े लेकर आता है रज़ामंदी, मग़फ़िरत, बाबुल-रय्यान से जन्नत में दाख़लिा, मुँह की बू जो मुश्क से भी ज़्यादा पाकीज़ा होती है, वग़ैरा की सौग़ात लेकर आता है। और हर इबादत सत्तर गुना तक पहुँच जाती है। अब यह हमारे ऊपर मुनहसिर है कि जब यह मेहमान रुख़्सत हो तो हम इसे दुनियावी मेहमान की तरह जाते वक़्त कौन-कौन सी सौग़ात, हसनात, नेकियाँ लेकर वापस भेजते हैं।
बस यह जान लो कि मख़लूक़ का दुनिया में आने का मक़सद सिर्फ़ इबादत है। “और मैंने जिन्नात और इंसानों को इसके सिवा किसी और काम के लिए पैदा नहीं किया कि वह मेरी इबादत करें।“
बुनिअल-इस्लाम की बुनियाद पर हर रुक्न की अलग-अलग इबादात हैं, मगर रोज़ा एक ऐसी इबादत है जिसका अजर व सवाब का वादा ख़ुद अल्लाह तआला ने अपने ज़िम्मे रखा है। अब किसको कितना सवाब मिलेगा? यह बंदे पर मुनहसिर है कि उसने अल्लाह तआला को किस तरह, किस आला मेय़ार (उच्च स्तर) पर राज़ी किया है। रसूलुल्लाह स0अ0व0 ने फ़रमायाः
हज़रत अबू हुरैरा कहते हैं कि रसूलुल्लाह स0अ0व0 ने फ़रमायाः “तुम्हारा रब फ़रमाता हैः हर नेकी का बदला दस गुना से लेकर सात सौ गुना तक है। और रोज़ा मेरे लिए है और मैं ही इसका बदला दूँगा। रोज़ा जहन्नम के लिए ढाल है, रोज़ादार के मुँह की बू अल्लाह के नज़दीक मुश्क की ख़ुशबू से ज़्यादा पाकीज़ा है, और अगर तुम में से कोई जाहिल किसी के साथ जहालत से पेश आए और वह रोज़े से हो तो उसे कह देना चाहिए कि मैं रोज़े से हूँ।
यह हदीस कुदसी अल्लाह तआला की तरफ़ से रोज़े की फ़ज़ीलत और उसकी ख़ास अहमियत को बयान करती है। जिसमें अल्लाह तआला ने रोज़े को अपने साथ ख़ास फ़रमाया है।
हज़रत अबू हुरैरा की हदीस में नबी करीम स0अ0व0 ने यह भी फ़रमाया है कि इब्ने आदम के हर अमल का बदला उसे दिया जाता है सिवाय रोज़े के, क्योंकि रोज़ा मेरे लिए है और मैं ही इसका बदला दूँगा।
रोज़ा अल्लाह के लिए है, रोज़ा दूसरे आमाल से मुख़तलिफ़ है, क्योंकि यह एक ख़ुफ़िया इबादत है। रोज़ादार का खाना, पीना और दीगर हलाल चीज़ें भी अल्लाह की रज़ा के लिए छोड़ता है और इसका सवाब सिर्फ़ अल्लाह जानता है और अल्लाह तआला रब्बुल-आलमीन है, बादशाहों का बादशाह। उसका अजर बे-हिसाब और बे-पायाँ होता है, जिसको समझने से इंसानी अक़्ल क़ासिर है।
रोज़े को हदीस में ढाल भी कहा गया है। इसी लिए बंदे को चाहिए कि वह तमाम हराम कामों से बचे फ़हश बात न करे, गाली न दे, झगड़ा न करे। अगर कोई और करे, तो कह दे “मैं रोज़े से हूँ“। यह सब मेहमान से कितनी मुमासिलत रखता है! जब भी हमारे घर कोई मेहमान आता है, हम निहायत तमीज़दार, सलीक़ामंद हो जाते हैं और तमीज़ और सफ़ाई के साथ ख़ुद भी रहते हैं और अपने घर वालों और घर को भी उसी तरह मुज़य्यन रखते हैं। अब यह बेहतरीन वक़्त और महिना, जिसे भी हासिल है, वह जितना शुक्र करे, कम है। क्योंकि देखो! पिछले साल कितने लोग हमारे बीच हयात थे, अब नहीं हैं। अब हमें यह मौक़ा फिर से मिला है तो शुकर व ब-सुजूद होकर तक़वा इख़तियार करने की कोशिश करें। अल्लाह तआला ने फ़रमायाः
ऐ ईमानवालो! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ कर दिए गए हैं, जिस तरह तुमसे पहले लोगों पर फ़र्ज़ किए गए थे, ताकि तुम्हारे अंदर तक़वा पैदा हो।“
दरअसल रोज़ा तो सभी रखते हैं, मगर उसका मक़सद यानी तक़वा सब को हासिल नहीं होता है। ख़ुद नबी करीम स0 अ0व0 ने फ़रमायाः
हज़रत अबू हुरैरा कहते हैं कि रसूलुल्लाह स0अ0व0 ने फ़रमायाः “बहुत से रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं कि उनको अपने रोज़े से भूख के सिवा कुछ नहीं हासिल होता, और बहुत से रात में क़याम करने वाले ऐसे हैं कि उनको अपने क़याम से जागने के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होता।“
यह हदीस हमें सबक़ देती है कि अगर रोज़ा रखते हुए हम झूठ, ग़ीबत, फ़हश गुफ़्तगू, धोका-धड़ी और दीगर अमाल से न बचें, तो हमारा रोज़ा महज़ फ़ाक़ा बन कर रह जाएगा। और हमें इसका रूहानी फ़ायदा नहीं मिलेगा, जो अल्लाह तआला ने इस इबादत में रखा है। रोज़ा सिर्फ़ खाने-पीने से रुकने का नाम नहीं है, बल्कि ज़बान, आँख, दिल और दीगर अज़ा को भी बुराइयों से रोकने का नाम है। लिहाज़ा हमें चाहिए कि रमज़ानुल-मुबारक में अपने अख़लाक़, नीयत और अमाल की भी हिफ़ाज़त करें ताकि हमारा रोज़ा मुकम्मल तौर पर मक़बूल हो और अल्लाह की रज़ा हासिल हो। बस ख़ुद-एहतसाबी (ैमस.िमअंसनंजपवद) करते रहें।
रमज़ान गुज़र रहा है और देखते ही देखते यह मेहमान चला जाएगा। और बस ऐसा न हो कि बंदा अफ़सोस से अपने हाथ रगड़ रहा हो, कि हाए! मैं यह वाली इबादत नहीं कर सका। क़ुरआन से तअल्लुक़ न बना सका। मैं इस सदक़े के क़ाबिल तो था, मगर कर नहीं सका। ज़कात नहीं दे सका। ईमान बिल्लाह मज़बूत न कर सका।“ बस ख़ुद का त्मअपेपवद करते रहें। ग़फलत से निकलये और ज़्यादा से ज़्यादा नेकों में अपना रिकॉर्ड लिखवाइए।
यह शहरुल-क़ुरआन है। बस ईमान बिल-कुतुब, ईमान बिल-क़दर, रज़ा बिस्सवाब को मज़बूत बनाइए और पानी के हर घूंट के साथ तौबा, इख़लास, रिज़्क़े-तय्यिब, इल्मे-नाफ़े और अमलन मुतक़ब्बलन माँगते रहिए।
और हमें भी अपनी दुआओं में याद रखिए।
“ऐ अल्लाह! मैं तुझ से नफ़अ बख़्श इल्म, पाकीज़ा रोज़ी और मक़बूल अमल का सवाल करता हूँ।“


